________________ अर्द्धाङ्ग में भगवती भवानी का निवास होने से कृष्ण शिव एवं अन्य देवता अकार से वाच्य नहीं हो सकते हैं क्योंकि अर्हत् भगवान के तो चरणों के नीचे देवी का स्थान है एवं इन देवताओं के पार्श्व में देवियों की स्थिति है। तितिक्षयाऽर्हनवनी च साक्षात् शुद्धोऽम्बुराशेजलवत् स्वचित्ते / तथाऽनिलोऽप्यप्रतिबद्धचारे ऽनलप्रभावस्तपसोग्रधाम्ना // 10 // अन्वय-अर्हन् तितिक्षया साक्षात् अवनी स्वचित्ते शुद्ध च अम्बुराशेर्जलवत्। अप्रतिवद्धचारे अनिलः अपि तपसोऽन धाम्ना अनल प्रभावः // 10 // अर्थ-अर्हद् भगवान सहनशीलना में साक्षात् पृथ्वी हैं एवं चित्त की निर्मलता में समुद्र का जल है। अप्रतिहत गति के कारण वे वायु एवं अतिउग्र तपस्या के तेज से वे साक्षात् अग्नि हैं / गत्यांशुमानप्रतिहन्यमान स्तीक्ष्णांशुमालीवसुदीप्रतेजाः / सौम्यः प्रकृत्या अमृतांशरूपः सदा निरालंबतयांबराभः // 11 // अन्वय-गत्या अप्रतिहन्यमानः अंशुमान् तीक्ष्णांशुमालीव सुदीप्रतेजाः प्रकृत्या सौम्यः इति अमृतांशुरूपः सदा निरालम्बतया अम्बराभः // 11 // अर्थ-ये अर्हत् अप्रतिहत गति के कारण तीक्ष्ण किरणों से शोभित सुवर्ण भास्वर सूर्य हैं प्रकृति से सौम्य वे चन्द्रस्वरूप हैं एवं निरालम्ब होने के कारण वे आकाश हैं। एकत्रिंशत्तमोऽध्यायः 281 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org