________________ एकत्रिंशत्तमोऽध्यायः गौतम उवाच ऐन्द्राया शक्तयोऽनन्ता यथार्हन्नाम्न्यकारके। . देवेऽप्यनन्तवीर्य स्या-दैक्याद्वाचकवाच्ययोः // 1 // अन्वय-श्री गौतम उवाचयथा अहंन्नाम्नि अकारके ऐन्द्राद्या अनन्ता शक्तयः (तथा) देवे अपि वाचकवाच्ययोः ऐक्यात् अनन्तवीर्य स्यात् // 1 // अर्थ-श्री गौतमस्वामी ने कहा कि जिस प्रकार अर्हन् नाम स्वरूप (वाचक) अकार में आत्म सम्बन्धी अनन्त शक्तियाँ समाई हुई हैं उसी प्रकार अर्हत् देव अकार के वाच्य हैं अतः वाचक अकार और वाच्य अर्हत् की एकता के कारण अकार में भी अनन्तवीर्यत्व निहित है। तत्केषांचन भावानां स्वभावं मेऽर्हति स्थितम् / विभावय स्यां येनाहं भावनात् पावनाशयः // 2 // अन्वय-तत् अर्हति स्थितं केषाञ्चन भावानां स्वभायं मे विभा वय येन अहं (तेषां) भावनात् पावनाशयः स्याम् // 2 // . अर्थ-तो हे भगवान् उन अर्हतों में स्थित कुछ भावों का स्वरूप मुझे समझाइए जिससे उन भावों की भावना से मैं पवित्रात्मा हो जाऊँ / श्री भगवानुवाच अईनर्क सिद्धरूपोऽर्थ एष सोऽय॑स्त्वजैरर्ध्यमूर्ति मुखेऽह्नः / तत्संज्ञायामष्टवर्गा ह्यकारे तेनैवाहनीश्वरोप्यष्टमूर्तिः // 3 // एकत्रिंशत्तमोऽध्यायः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org