________________ अर्थ-योग साधना में नियमपूर्वक सदा सोऽहं (वह मैं हूँ) व हं स ( मैं वह हूँ) का अनाहत जाप योगी लोग करते हैं वहाँ भी अकार से अर्हन् का ग्रहण होता है। अकारः पृथिवी तत्त्व-मीपत्प्राग्भारिकास्थितः / . स्वरशास्त्रे स्वेष्टसिद्धये तद्वाच्योऽहन् न तत्परः // 21 // अन्वय-ईषत् प्राग्भारिकास्थितः अकारः पृथिवी तत्त्वं स्वरशास्त्रे स्वेप्रसिद्धयै तत् अर्हन् वाच्यः न तत्परः // 21 // अर्थ-ईषत् प्राग्भारिका स्थित अकार पृथ्वी तत्व के रूप में माना जाता है। स्वरशास्त्र में भी अकार पृथ्वी तत्त्व है। इष्ट सिद्धि के लिए उस अ से अर्हन् रूप भगवान और अन्य कोई नहीं लेना चाहिए। // इति श्रीअहंद्गीतायां कर्मकाण्डे त्रिंशत्तमोऽध्यायः // त्रिंशत्तमोऽध्यायः 275 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org