________________ त्रिंशत्तमोऽध्यायः श्री गौतम उवाच ऐन्द्रं रूपं यथा मुख्यं सर्वदेवेषु गीयते / ॐकारस्तद्वद्वर्णेषु तत्राकारः पुरस्सरः॥१॥ अव्ययत्वादकारस्या-नेकेाः सद्भिराहिताः। तेनाकारेण किं ध्येयो-ऽहन्या कृष्णो विधिर्भवः // 2 // अन्वय-यथा सर्वदेवेषु ऐन्द्रं रूपं मुख्यं गीयते तद्वत् ॐकारः वर्णेषु तत्र अकारः पुरस्सरः // 1 // अन्वय-अव्ययत्वाद् अकारस्य अनेके अर्थाः सद्भिः आहिताः तेन अकारण अर्हन् वा कृष्ण: विधिः भवः किं ध्येयः // 2 // अर्थ-श्री गौतम स्वामी ने भगवान से पूछा कि जिस प्रकार सभी देवों में इन्द्र को मुख्य माना जाता है वैसे ही सभी वर्गों मैं ॐ कार की प्रधानता है। उस में प्रथमाक्षर अकार है // 1 // अव्यय होने के कारण अकार के अनेक अर्थ सन्तों ने कहे हैं अतः उस अकार से अर्हत् अथवा ब्रह्मा विष्णु महेश में से किन का ध्यान करना चाहिए // 2 // श्री भगवानुवाच कारागृहं च संसारो जीवयोनिः भवभ्रमः / तदभावादकारोऽहेन् कैवल्यादक्षरादिमः॥३॥ अन्वय-संसारो कारागृहं जीवयोनिः च भवभ्रमः तद् अभावात् कैवल्यात् अक्षरादिमः अकारः अर्हन् // 3 // अर्थ-श्री भगवान ने कहा कि संसार कारागृह रूप है और इस में विचरण करने वाली जीवयोनि भवभ्रमण करती रहती है अर्हन् शुद्ध स्वरूपी त्रिंशत्तमोऽध्यायः 269 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org