________________ त्रिंशत्तमोऽध्यायः अकार से वीतराग का ग्रहण [श्री गौतम स्वामी ने पूछा है कि ॐ कार का प्रथमाक्षर अकार है। से उस अकार से अर्हत् ब्रह्माविष्णु महेश में से किन का ध्यान करना चाहिये ? श्री भगवान् ने उत्तर दिया कि अहंत शुद्ध स्वरूपी हैं उनका जरामरण नहीं है अतः अव्यय रूप यह अकार अर्हवाचक है। अकार के संवृत विवृतादि चौबीस भेद हैं एवं अर्हतों के भी ऋषभादि चौबीस रूप हैं यह अकार नाभि में अव्यक्त निराकार है तथा लिखने पर व्यक्त साकार है। नाभिराज से उत्पन्न आदिनाथ से सारी वर्ण व्यवस्था प्रारम्भ हुई तो अकार से भी सम्पूर्ण मातका की वर्ण व्यवस्था उत्पन्न हुई है। यह अकार प्रकृति से धवल है अतः इसे कृष्ण कहना समीचीन नहीं है। ज्ञानमयता के कारण विष्णु अथवा अर्हत् भगवान् में जगत व्याप्त है यह व्याप्ति मायामय माने जाने वाले किसी भी देवता में नहीं हो सकती है। असे आदिदेव अहत् ऋषभदेव का ग्रहण करना चाहिये तथा म से महावीर। इस प्रकार ॐनमः कहने से 24 तीर्थंकरो को नमस्कार किया जाता है। अकार पृथ्वी तत्त्व के रूप में माना जाता है अतः अपने इष्ट की सिद्धि के लिए अ से अर्हत् भगवान का ही ग्रहण करना चाहिये। अर्हद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org