________________ अन्वय-बिन्दुशुषिर तद्गोलाकार स्थानं अकारजः अलोकस्य अनन्तभावं अकारयुगं परम् वक्ति // 12 // अर्थ-अहँ पर स्थित बिन्दु रूप गोलाकार स्थान भी अ से ही उत्पन्न है क्योंकि अनुस्वार की उत्पत्ति भी अ के कंठ नासिका से उच्चारित होने से होती है इसलिए अ के सभी व्यजनों, अनुस्वार एवं विसर्ग में भी रहने से तथा आत्मा और परमात्मा का वाचक होने से इस अ रूपी लोक के अनन्त भाव कहे गए हैं। इन व्यक्त एवं अव्यक्त अ के दोनों रूपों को सर्वोच्च कहा गया है। विवेचन—कंठ से जो अ का उच्चार होता है उसमें नासिका का उच्चार अनुस्वार मिलने से अं का उच्चार होता है। एवमर्ह पदध्यानं व्यक्ताव्यक्ततयोदितम् / तद्धयानादव्ययः सिद्धः स्यादोंकारस्वरूपभाक् // 13 // अन्वय-एवं व्यक्ताव्यक्ततया अर्ह पदध्यानं उदितम्। तत् ध्यानात् ॐकार स्वरूपभाक् सिद्धः अव्ययः स्यात् // 13 // अर्थ-इस प्रकार व्यक्त तथा अव्यक्त रूप से अहं पद का ध्यान बताया गया है। इस अहँ पद के ध्यान से ऊँकार स्वरूपमय अव्यय सिद्ध पद की प्राप्ति होती है। अस्त्यन्यतीर्थिकश्रद्धा गणेशस्याकृति_सौ। तेना (न) प्रोच्चैः करोल्लासः पुरो बिन्दुश्च मोदकः // 14 // अन्वय-असौ हि गणेशस्य आकृतिः (इति) अन्यतीर्थिकश्रद्धा अस्ति। तेन प्रोच्चैः करोल्लासः पुरः बिन्दुश्च मोदकः // 14 // .. . अर्थ-यह ॐ गणेश की आकृति स्वरूप है ऐसा सनातन धर्मावलम्बी मानते हैं। ॐ की ऊपर की वर्तुलाकार रेखा गणेश की सूंड का एकोनत्रिंशत्तमोऽध्यायः 265 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org