________________ स्वरूप एक रेखा। और दूसरी उर्ध्वगामी मन की रेखा। उ के रुप में प्रकट होती है। दोनो रेखाएँ संयोजित होनेसे अ होता है उसी अ से मातृका में पांचो वर्ग (क वर्ग च वर्ग ट वर्ग त वर्ग प वर्ग) अ से युक्त माने जाते हैं। पाणिनिशिक्षा में कहा गया है " सर्वमुखस्थानमवर्णमित्येके" अर्थात् सर्वमुख स्थानों से उच्चरित व्यञ्जनों में एक अ वर्ण ही रहता है। प्रोक्तो(क्ता) विवाहप्रज्ञप्तावेवं लोकस्थितिस्ततः / तदूर्ध्व सिद्धसंस्थाना-दों नमः समुदीर्यते // 10 // अन्वय-विवाह प्रज्ञप्तौ ॐ प्रोक्तः एवं लोक स्थितिः। तदूर्व सिद्ध संस्थानात् ॐ नमः सिद्धम् (इति) समुदीर्यते // 10 // __ अर्थ-विवाह प्रज्ञप्ति (भगवती सूत्र ) में भी ॐ का महत्त्व प्रतिपादित किया है कि यह लोकस्थिति है। इस ॐ पर सिद्ध स्थित होने से ही वर्णमातृका के अध्ययन के प्रारम्भ में ॐ नमः सिद्धम् का उच्चारण किया जाता है। अकारस्यात्मनो लेखैका परा परमार्हतः / ततः सरेफे हे हंसे सिद्धेऽसौ पुरुषाकृतिः // 11 // अन्वय-अकारस्य एका लेखा आत्मनः परा परमार्हतः ततः सरेफे हे हंसे सिद्ध (सति) असौ (अ) पुरुषाकृतिः // 11 // अर्थ-अब अहं पद की सिद्धि एवं विवेचना करते हैं अकार की एक रेखा आत्मा का निर्देश करती है एवं दूसरी रेखा सभी व्यञ्जनों में पर रूप से स्थित रेखा अर्हत् (परमात्मा ) स्वरूप है। आत्मा व्यक्त रेखा है अव्यक्त रेखा परमात्मा स्वरूप है। तत्पश्चात् रेफ युक्त ह (ह) में हंस रूप सिद्ध भगवान के होने से यह अहं पद पुरुषाकृति माना गया है / बिन्दुशुषिरतद्गोलाकारस्थानमकारजः / - अलोकस्यानन्तभावं वक्त्यकारयुगं परम् // 12 // 264 अहंद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org