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________________ अर्थ-समीचीन सूक्तियों युक्तियों से समर्थित वृत्तिभाप्यादि व्याख्या भी शुद्ध ज्ञान के ही अंग हैं अतः वे मनुष्य मात्र को भुक्ति और मुक्ति देने वाली होती है। रुचिं विनापि सद्वाक्यं हिताय रौहिणेयवत् / धर्मोपदेशे शुद्धत्वं केवलज्ञानशालिनाम् // 11 // अन्वय-रूचि विना अपि सद्वाक्यं रोहिणेयवत् हिताय केवलज्ञानशालीनां धर्मोपदेशे शुद्धत्वं // 11 // अर्थ-बिना रूचि सुना हुआ गुरु का सद्वाक्य भी रोहिणेय चोर की तरह हितकारी होता है उसी प्रकार केवली भगवन्तों के धर्मोपदेश में शुद्धता होती है। तदभावेऽवधिमनः-पर्ययश्रुतधीभृताम् / केवलात् श्रुतधीः श्रेष्ठा यतः प्रकृतिकारणात् // 12 // अन्वय-तद् अभावे अवधिमनःपर्ययश्रुतधीभृताम् केवलात् श्रुतधीः श्रेष्ठा यतः प्रकृतिकारणात् // 12 // ___ अर्थ-उन केवलज्ञानी गुरुओं के अभाव में अवधि मनःपर्यव व श्रुतज्ञानियों का उपदेश सुनना चाहिए। केवल ज्ञानियों से (मुण्डकेवलियोंसे) श्रुतज्ञानी प्रकृत्ति के कारण श्रेष्ठ होता है क्योंकि वे उपदेश देते हैं और केवलि मौन धारण करते हैं। श्रुतज्ञानेऽक्षरं मुख्यं संज्ञा-व्यञ्जन-लब्धिभिः / तत्रिधा तत्र संज्ञासौ भगवत्यां नमस्कृता / / 13 // अन्वय-संज्ञा-व्यञ्जन-लब्धिभिः श्रुतज्ञाने अक्षरं मुख्यं तत् त्रिधा तत्र असौ संज्ञा भगवत्यां नमस्कृता / / 13 // __ अर्थ-संज्ञाक्षर ( लिपि ) व्यञ्जनाक्षर ( उच्चार ) लब्ध्यक्षर (लब्धिदायी) ये तीन प्रकार के अक्षर श्रुतज्ञान में मुख्य हैं उसमें भी 256 अईद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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