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________________ अन्वय-धर्माचारे स वेषः अपि क्रिया, सा एव शास्त्रार्थपद्धतिः वैराग्यं प्रमाणं शानं यतः अधिका श्रद्धा // 7 // अर्थ-धर्माचरण में वह साधु-वेष भी क्रिया का ही अंग है वही शास्त्रोक्त प्रणाली है और वैराग्य ज्ञान का प्रमाण है जिस से अधिक श्रद्धा उत्पन्न होती है। वल्गयाश्चोंकुशेनेभो नस्त्यानड्वान् वशीभवेत् / वधूर्नाथिकया शास्त्रोपदेशेन तथा पुमान् // 8 // अन्वय-वल्गया अश्व अंकुशेन च इभ नस्त्या अनड्वान् वधू नाथिकया वशीभवेत् तथा शास्त्रोपदेशेन पुमान् / / 8 / / अर्थ-लगाम से घोड़ा, अंकुश से हाथी, नाथ से बैल, नथ से बहू जैसे वश होती है वैसे ही शास्त्र के उपदेश से (बुद्धिमान) पुरुष भी वश होता है। शास्त्रं शास्त्रान्तरदृढं गुरुपरंपरागमः। पारंपर्य विनानेष्टं तत्र भिल्ल्या निदर्शनम् // 9 // अन्वय-शास्त्रं शास्त्रान्तरदृढं गुरुपरंपरागमः पारम्पर्य विना इष्टं न तत्र भिल्ल्याः निदर्शनम् // 9 // अर्थ-एक शास्त्र दूसरे शास्त्र से ही दृढ़ होता है एवं गुरु परम्परा से आगम (ज्ञान) की प्राप्ति होती है। गुरु परम्परा के बिना प्राप्त शास्त्र इष्ट फलदायी नहीं होता है, यहाँ भीलनी का उदाहरण है / व्याख्यापि वृत्तिभाष्यादिसूक्त्या युक्त्या समर्थया / शुद्धागमाविरोधेन भुक्तिमुक्तिप्रदा नृणाम् // 10 // अन्वय-समर्थया सूक्त्या युक्त्या वृत्तिभाष्यादि व्याख्या अपि शुद्धागम अविरोधेन नृणां भुक्ति मुक्तिप्रदा // 10 // अष्टविंशतितमोऽध्याया 255 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ..
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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