________________ वस्तु में भी प्रायः अज्ञानी (अतत्त्वज्ञ) अपनी बुद्धि का योजन नहीं कर पाता है। तस्या नैर्मल्यसंपत्त्यै दयाशीलतपःश्रुतैः / परीक्षणीयो धर्मोऽपि कषैः स्वर्णमिवोत्तमैः // 4 // अन्वय-उत्तमैः कषैः स्वर्ण इव तस्य नैर्मल्यसंपत्त्यैः दया शील तपः श्रुतैः धर्मः अपि परीक्षणीयः // 4 // अर्थ-जिस प्रकार उत्तम कसौटियों से सोने की परख की जाती है वैसे ही आचार की निर्मलता की प्राप्ति के लिये धर्म की दया शील तप तथा शास्त्रों से परीक्षा करनी चाहिए। रागद्वेषमोहदोषाः साम्यभावनया हृदि / क्षिप्ता देवाः प्रतीतास्ते व्यतीता भवविभ्रमात् // 5 // अन्वय-रागद्वेषमोहदोषाः हृदि साम्यभावनया क्षिप्ता ते देवाः / प्रतीता भवविभ्रमात् व्यतीता // 5 // __ अर्थ-जिनके हृदय में राग द्वेष मोह दोषादि साम्यभाव में विलीन हो गये हैं अर्थात् इन भावों का उपशमन हो गया है वे देवता रूप हैं वे संसारचक्र से मुक्त हो गए हैं / तदुक्तमार्गे ये लीना मीना इव महोदधौं / गुरवो गुरवो ज्ञान-श्रद्धाचारतपोगुणैः // 6 // अन्वय-महोदधौ मीना इव ये तदुक्तमार्गे लीनाः गुरवः ज्ञानश्रद्धाचारतपोगुणैः गुरवः // 6 // . अर्थ-महासमुद्र में मछलियों की तरह जो अर्हत कथित मार्ग में लीन है, वह गुरु ज्ञान दर्शन चारित्र तथा तपो गुणों से महान् है। वेषः सधर्माचारेऽपि क्रिया शास्त्रार्थपद्धतिः। सैव प्रमाण वैराग्यं ज्ञानं श्रद्धा यतोऽधिका // 7 // अर्हद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org