________________ अष्टविंशतितमोऽध्यायः श्री गौतम उवाच ऐश्वराङ्गे गुरौ देवे धर्मशास्त्रे क्रियासु च / वैषेऽनुयोगे वाचारे भेदः सर्वत्र वीक्ष्यते // 1 // पृच्छयते यस्य मध्यस्थैः धर्म स स्वं वदेत शुभं / तदन्यं मन्यते दुष्टं संशयालुर्जनस्ततः // 2 // अन्वय-वैषे ऐश्वरांगे गुरौ देवे धर्मशास्त्रे क्रियासु अनुयोगे आचारे वा सर्वत्र भेदः वीक्ष्यते // 1 // अन्वय-मध्यस्थैः यस्य पृच्छ्यते स स्वं धर्म शुभं वदेत् तदन्यं दुष्टं मन्यते ततः जनः संशयालुः // 2 // अर्थ-श्री गौतमस्वामी ने भगवान् से पूछा संसार में ईश्वर के विषय में, गुरू में, देवों में, धर्मशास्त्रों में, क्रियाओं में अनुयोग तथा आचार में सर्वत्र भेद दिखाई देता है। मध्यस्थ लोग जिसे पूछते हैं वही अपने धर्म को श्रेष्ठ बताता है एवं दूसरों के धर्म को खराब बताता है अतः लोक संशयी होते हैं। श्री भगवानुवाच या गतिः सा मतिरिति न्यायात्तत्त्वेऽप्यतत्त्वधीः / द्रव्यक्षेत्रकालभावा-बान्वेति प्रायशो मतिः // 3 // अन्वय-या गतिः सा मतिः इति न्यायात् द्रव्यक्षेत्रकालभावात् तत्त्वे अपि अतत्त्वधीः प्रायशः मतिः न अन्वेति // 3 // अर्थ-श्री भगवान् ने गौतम से कहा कि हे गौतम ! जीवकी जैसी गति वैसी ही मति होती है इस न्याय से द्रव्यक्षेत्रकालभाव से तत्त्व अष्टविंशतितमोऽध्याया 253 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org