________________ अष्टविंशतितमोऽध्यायः सद्गुरु में श्रद्धा से सद्धर्मप्राप्ति [ श्री गौतम स्वामी ने पूछा कि गुरू परमात्मा तथा धर्मशास्त्रादि में सर्वत्र अनुयोग तथा आचार में भेद दिखाई देता है तो उनक सच्चा स्वरूप क्या है ? क्योंकि सभी अपने देव तथा गुरू को श्रेष्ठ बताते हैं। श्री भगवान् ने उत्तर दिया कि अज्ञानी पुरुष बुद्धिबलसे द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव से तत्त्व वस्तु का सही ज्ञान नहीं पा सकता है। अतः बुद्धि की निर्मलता के लिए दया, शील, तप एवं शास्त्रों से उस तत्त्व-वस्तु की परीक्षा करनी चाहिए। ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र से जो परमात्मा में लीन है उन महान् गुरूओं से तत्त्वज्ञान प्राप्त करना चाहिए। उनके उपदेश से पुरुष वश में होते हैं। बिना रूचि सुना हुआ गुरु का सद्वाक्य रोहिणेय चोर की तरह हितकारी होता है श्रद्धापूर्वक देव, गुरु तथा सूत्रार्थ का आलोचन करने से जो तत्त्व प्राप्त होता है वही धर्म है। जिसका स्वरूप वर्णमातृका में समाया हुआ है वही वर्णमातृका ब्राह्मी है, सरस्वती है एवं मंगल विधायिनी है। *** . 252 अर्हद्गीत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org