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________________ श्वेताम्बरधरा गोराः पुरतः पुस्तकान्विताः / व्याख्यानमुद्रया युक्ताः ध्यायन्तो वा हरिं जिनम् // 19 // अन्वय-श्वेताम्बरधरा गौराः पुरतः पुस्तकान्विताः हरि जिनं वा ध्यायन्तः व्याख्यानमुद्रया युक्ताः // 19 / / अर्थ-श्वेत वस्त्रधारी हो या दिगम्बर, सामने पुस्तकों से शोभित तथा हरि अथवा जिनेश्वर भगवान् का ध्यान करते हुए वे गुरु, व्याख्यान की मुद्रा से युक्त हैं। सेवते दैवतामिव गुरूं परंपरागतम् / तत्पार्थे नियमात् शास्त्रं शृणुते वृणुते धृतिम् // 20 // अन्वय-(यः) परम्परागतं गुरुं देवतां इव सेवते तत्पायें नियमात् शास्त्रं श्रृणुते धृतिं वृणुते // 20 // अर्थ-जो परम्परा से प्रतिष्ठित गुरू की देवता की तरह सेवा करता है एवं उनके पास बैठकर नियम पूर्वक शास्त्र सुनता है वह धैर्य एवं सन्तोष को प्राप्त करता है। गुरूपदेशसंज्ञायै कर्णवेधो विधीयते / उपदेशात्मकर्णत्वं नरे नाकृतिमात्रतः // 21 // अन्वय-गुरूपदेशसंज्ञायै कर्णवेधः विधीयते नरे उपदेशात्मकर्णत्वं आकृतिमात्रतः न // 21 // अर्थ-इतर सप्रदाय में गुरु के उपदेश के संज्ञान के लिए शिष्य को कर्णभेद कराया जाता है। आकृति के बजाय जो गुरू के उपदेश के लिए कान देता है अर्थात् ध्यान से सुनता है उस नर को उपदेश से (आत्मकर्णत्व) आन्तरिक आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। // इति श्रीअर्हद्गीतायां सप्तविंशतितमोध्यायः // सप्तविंशतितमोऽध्यायः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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