________________ अन्वय-भोगैः न स्पृष्टा या गंगा यदंगजः ब्रह्मचारी शिवेन शिरसः ऊढा अपि लवणाम्बुधौ अपतत् // 9 // अर्थ-भोगों ने जिसे स्पर्श भी नहीं किया और जिसका पुत्र भीष्मपितामह बाल ब्रह्मचारी हुआ तथा शिव के द्वारा सिर पर धारण की हुई वह (पवित्र ) गंगा अंत में समुद्र में गिर गई। अर्थात् अगर भवसमुद्र के प्रति लक्ष्य हो तो पतन अवश्य है। ध्यायन् श्मशानवेश्मानं तं भक्तेः शिवमीक्षते / वह्निर्जलायते तस्य विषमप्यमृतायते // 10 // अन्वय-श्मशानवेश्मानं तं भक्तेः ध्यायन् शिवं ईक्षते तस्य वह्नि ' जलायते विषं अपि अमृतायते // 10 // अर्थ-इमशान में निवास करने वाले उस शिव का भक्ति पूर्वक ध्यान करते हुए. जो कल्याण चाहता है उसके लिए अमि जलस्वरूप व विष भी अमृतस्वरूप ही होगा। स रामः शस्त्रभृद्वान्यो हयग्रीवो नृकेसरी। शिवाय न विदा सेव्या ज्ञेयास्ते पुरुषोत्तमाः॥ 11 // अन्वय-विदा शस्त्रभृत् स रामः वा अन्यः नृकेसरी हयग्रीवः शिवाय न सेव्या ते पुरुषोत्तमा ज्ञेयाः॥११॥ अर्थ-बुद्धिमान को मोक्ष के लिए शस्त्रधारी उन राम अथवा नरसिंह विष्णु आदि की सेवा नहीं करनी चाहिए पर उनको पुरुषोत्तमों के रूप में (शलाकापुरूष) जानना चाहिए। उनसे सांसारिक सम्पत्ति मिल सकती है पर मोक्ष सम्पदा नहीं। यः कैवल्यान्न मायास्पृक् समदृक् योगनिश्चितः / शुद्धः सिद्धः प्रबुद्धश्च शान्तः श्रीभगवानयम् // 12 // अन्वय-यः कैवल्यात् न मायास्पृक्ः समदृक् योगनिश्चितः शुद्धः सिद्धः प्रबुद्धः च शान्तः अयं श्री भगवान् // 12 // 248 अर्हद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org