________________ अन्वय-इत्यादि यः अन्धर्थनामा अर्हन शिवस्य च उपदेष्टा तस्मात् अन्यः कश्चित् मूर्तः शिवः न तेन अस्य सान्तता // 6 // अर्थ-इत्यादि जिसके सार्थक नाम हैं जो अर्हत् मोक्ष मार्ग के उपदेष्टा हैं उनसे भिन्न कोई अन्य मूर्तिमंत शिवशंकर नहीं है। और चरम स्थिति (मोक्षस्थिति) इन्ही में समाई हुई है / न गौरीशो न कालीशः खण्डपशुधरो न वा / न रुद्रो भैरवो नोयो न भीमो वा नटेश्वरः / / 7 // अन्वय-न गौरीशः न कालीशः न वा खण्डपशुधरो न रुद्रो न उग्रो भैरवो न भीमो न वा नटेश्वरः // 7 // अर्थ-वह परमात्मा निसङ्ग है न वह पार्वतीपति है न कालिका का पति है न वह परशुधर है, न वह रुलाने वाला रुद्र है न उग्र भैरव है न भीम (भयंकर) है और न नटराज है। गौरी सती गले यस्य लग्ना काली ततोऽभवत् / आर्यापि चंडी तद्भक्ते युक्तं स्याद्भवसेवकः // 8 // अन्वय-गौरी सती यस्य गले लग्ना आर्यापि काली चंडी अभवत् तद्भक्ते भवसेवकः युक्तं स्यात् // 8 // अर्थ-जिनकी गोद में शक्ति रूप में गौरी और सती विद्यमान है एवं देवी आर्या भी काली और चंडी रूप मे हो गई है ऐसे भगवान् स्वरूप / की भक्ति करने वाले को शायद भवसेवक अर्थात् संसार में उत्सुक कहे गये है। शिव का एक नाम भव भी है। भव शब्द पर श्लेश का प्रयोग किया गया है। स्प(स्पृोष्टा न भोगैर्या गङ्गा ब्रह्मचारी यदंगजः / शिवेन शिरसोदूढाप्यपतल्लवणाबुधौ // 9 // सप्तविंशतितमोऽध्यायः 247 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org