________________ अन्वय-यः स्वयं शिवं आपन्नः प्रेक्षणे अपि शिवङ्करः यः सदा तेजोभासुरैः श्रीसुरासरैः पूज्यते जिनः, सनातनः, जिष्णु, अच्युतः, पुरुषोत्तमः, स्वभूः, विश्वम्भरः नाम्ना यः न जनार्दनः // 3-4 // अर्थ-(परमात्म स्वरूपकी चर्चा करते कहते हैं कि) जो परमात्मा स्वयं शिवरूप है देखने में भी मंगलकारी है, जो परमात्मा सदा प्रकाशमान तेजस्वी देवों असुरों आदि से पूजा जाता है। जो स्वयं को जीतने के कारण जिन है, अनन्त होने के कारण सनातन है, 'विश्वजयी होने के कारण जिष्णु है, कभी स्खलित नहीं होने के कारण अच्युत है, मानवों में उत्तम होने के कारण पुरूषोत्तम है, स्वयं उत्पन्न होने के कारण स्वयंभू है, विश्वको भरने वाला अर्थात् प्रकाशित करने वाला होने से विश्वम्भर है, किन्तु वह जनता को पीड़ित करने वाला ( जनार्दन ) नहीं है। स्वयंभूः परमेष्ठी च नाभेयः सात्त्विकोत्तमः / वृषाङ्कः शङ्करः शम्भु-र्यः सर्वज्ञो महाव्रती // 5 // अन्वय-यः स्वयम्भूः परमेष्ठी च नाभेयः सात्विकोत्तमः वृषाङ्कः, शङ्करः शम्भुः सर्वज्ञः महाव्रती // 5 // अर्थ-जो परमात्मा अपने आप उत्पन्न होने वाला स्वयम्भू है परमेष्ठी है, नाभि से उत्पन्न स्वररूप अथवा नाभि से उत्पन्न आदिनाथ स्वरूप है, सात्विकों में भी उत्तम, वृष लांछन है, कल्याण करने वाले हैं शान्ति के धाम शम्भु है, लोकालोक जानने वाले होने से सर्वज्ञ हैं, एवं सार्वभौम व्रत को धारण करने वाले होने से महाव्रती हैं। इत्याद्यन्वर्थनामाई-नुपदेष्टा शिवस्य यः / __तस्मान्नान्यः शिवः कश्चित् मृ? तेनास्य सान्तताः।॥ 6 // 246 अर्हद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org