________________ अकारः परमात्मासौ विश्वंभरोऽप्यधः क्षिपेत् / उ वर्णवत्सर्वमात्रां तदा बिन्दुरिवोर्ध्वगः // 20 // अन्वय-असौ अकारः परमात्मा विश्वंभरः अपि उ वर्णवत् सर्वमात्रां अधः क्षिपेत् तदा बिन्दु इव उर्ध्वगः // 20 // अर्थ-यह अकार परमात्मा है विश्वम्भर अर्थात् विश्वप्रकाशक भी है। यह उ वर्ण की तरह सभी (उपाधियों) मात्राओं को नीचे रखता है तथा बिन्दु (सिद्ध) की तरह उर्ध्वगामी है। वर्ण में उ की मात्रा नीचे लगती है। और बिन्दु उपर लगाया जाता हैं। न्यासतोप्यव्ययं वक्ति ॐकारः शक्तिमान् स्वयम् / शब्दादपि क्षणाल्लोकं व्याप्नोति ब्रह्मतेजसा / / 21 // अन्वय-स्वयं शक्तिमान् ॐकारः (य) न्यासतः अपि अव्ययं वक्ति शब्दात् अपि ब्रह्मतेजसा क्षणात् लोकं व्याप्नोति // 21 // .. / अर्थ-यह ॐकार स्वयं शक्तिमान् है जो न्यास से भी इस अव्यय शब्द ॐ का उच्चारण करता है वह शब्द मात्र से भी क्षण में ही त्रिभुवन को ब्रह्मतेज से आविष्ट कर लेता है। // इति श्री अर्हद्गीतायां कर्मकाण्डे षड्विंशत्यध्यायः / / 26 / / षड्विंशोऽध्यायः 243 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org