________________ 1- अ hor in hy chr + 7 - अर्थ-कुछ विद्वान अ वर्ण को मुख के सभी प्रयत्न तथा उच्चारण स्थानों से उद्भूत मानते हैं। उसमें मात्रा का योग होने पर इ तथा उ इसके अन्तिम वर्ण हैं। शेष स्वर तो संधि से उत्पन्न होते हैं। अर्थात् मात्रा लगने पर अ से इ और उ होते हैं और अ इ ओर उ तिन मुख्य वर्गों से द्वादशादीक्षारीकी उत्पत्ति दिखायी गयी हैं परंतु वस्तुतः अ ही प्रधान वर्ण है। उद्भूत- अ - अ +f = इ संधिज- अ+ इ = अ+ई = अ+ उ =ओ अ+ऊ = औ (ल)ऋवर्णस्तु ऋवर्णान्तः स च वृद्धो गुणेऽग्रिमे / प्रायोऽप्रयोगा दीर्घ च नापठीत् द्वादशाक्षरी / / 18 // अन्वय-(ल) ऋवर्णः तु ऋवर्णान्तः स च अग्रिमे गुणे वृद्धः प्रायः अप्रयोगात् दीर्घ च न अपठीत् द्वादशाक्षरी // 18 // अर्थ-ल वर्ण ऋ वर्ण के बाद में आता है वह आगे गुण करने पर वह बड़ा रूप धारण करता है लू। लेकिन प्राय लू के दीर्घ रूप का प्रयोग नहीं होने के कारण इसकी द्वादशाक्षरी नहीं पढ़ी जाती है अथवा बारह खड़ी में इसे नहीं पढ़ाया जाता है। अकारे सर्ववौघं मत्वा मात्रानुवर्णिकं / अनुस्वारे विसर्ग च ॐकारं सर्वगं जपेत् // 19 // अन्वय-अकारे मात्रानुवर्णिकं सर्ववर्णौधं मत्वा अनुस्वारे विसर्ग च सर्वगं ओंकार जपेत् // 19 / / / अर्थ-अकार में मात्राओं के अनुसार और अनुस्वार से विसर्ग रूप (अं अः) धारण करने वाला सभी वर्गों का समूह मानकर (वर्णमाला में) सर्वव्यापी ॐकार का जप करना चाहिए / 242 अहंद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org