________________ उच्चार करने पर अ इकार तथा उसका दीर्घ रूप ईकार तथा ( तालुके) उसके नीचे का भाग से उकार उच्चारित होता है। तध्ये बृद्धऊकारो-ऽधः परान्मुखमात्रया। ऋवर्णस्तद्विशेषेण ऋवर्णः संधिजा परे // 6 // अन्वय-अधः पराङ्मुखमात्रया तदैये वृद्ध ऊकारः तद्विशेषण क्रवर्णः परे ऋवर्ण संधिजा // 6 // अर्थ-नीचे की ओर झुकी हुई मात्रा से उ का दीर्घ रूप ऊकार बनता है उस उ की विशेषता से ऋवर्ण तथा इसके पश्चात् इसकी संधि से ऋवर्ण होता है। न क्षरत्यक्षरं राति स्वमर्थ वा ततः स्वरः। केवलोऽकारमेवाय-माकाराद्यास्तु तद्भिदः // 7 // अन्वय-न क्षरति इति अक्षरं, स्वं अर्थ राति इति स्वरः केवलः अकारं एव अयं आकाराद्याः तु तद्भिदः // 7 // अर्थ-जो कभी भी नाश नहीं होता हैं यह अ अक्षर है। अपने अर्थ का अपने आप प्रकाशन करते हैं यह स्वर है। यह सब आकारादि तो केवल अकार के ही भेद हैं। स्वारं स्वरसमूहस्तत् पश्चाल्लमो मकारजः / नकारजो वाऽनुखारो बिन्दु दविशेषवान् // 8 // अन्वय-स्वरसमूहः तत् स्वारं पश्चात् लग्नः बिन्दु द विशेषवान् मकारजः नकारजः अनुस्वारः // 8 // अर्थ-स्वरों के समूह को स्वार कहते हैं। यह स्वार है उसके पश्चात् लगे बिन्दु एवं नाद से विशिष्ट मकार तथा नकार होते हैं जो अनुस्वार कहलाते हैं। अर्थात् अनुस्वार शब्द से ही स्पष्ट होता है कि वह अहंदगीता 238 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org