________________ षड्विंशत्यध्यायः श्री गौतमउवाच ॐकारस्त्रिजगद्व्यापी नाथ निश्चीयते कथम् / जगद्वयाप्ति विना ब्रह्माभिधत्ते परमं कुतः // 1 // अन्वय-नाथ! त्रिजगद्व्यापी ॐकारः कथं निश्चीयते जगद् व्याप्ति विना कुतः परमं ब्रह्मा अभिधत्ते // 1 // . अर्थ-श्री गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा, हे नाथ ! ॐकार त्रिलोक में व्याप्त है यह निश्चय कैसे किया जाता है एवं जगत में व्याप्ति के बिना इन्हें परम ब्रह्म कैसे कहा जाता है ? श्री भगवानुवाच ज्ञेयं यदभिधेयं तत् न ज्ञानमभिधां विना / विनाक्षरं नाभिधापि नोंकारेण विनाक्षरम् // 2 // अन्वय-यत् अभिधेयं तत् ज्ञेयं अभिधां विना ज्ञानं न अक्षरं विना अभिधा अपि न ओंकारेण विना अक्षरं अपि नास्ति // 2 // . अर्थ-श्री भगवान ने कहा, हे गौतम ! जो पदार्थ कहने योग्य होता है वही जानने योग्य होता है क्योंकि संसार में नाम के बिना ज्ञान नहीं होता है, और यह नाम भी अक्षर के बिना संभव नहीं होता है। और ओंकार के बिना अक्षर की भी स्थिति नहीं है। प्रत्ययार्थाभिधानेन तत्तुल्यं नामधेयता। वाच्यवाचकयोरेक्यं स्यात्तद्बोधसमुद्भवात् // 3 // अन्वय-प्रत्ययार्थाभिधानेन तत्तुल्यं नामधेयता तद्बोधसमुद्भवात् वाच्यवाचयोरक्यं स्यात् // 3 // . अहंद्गीता 236 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org