________________ षड्विंशत्यध्यायः ॐकार में परमात्मा [श्री गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा है कि हे नाथ / ॐ कार त्रिजगत् व्यापी है यह कैसे निश्चित किया जा सकता है एवं इसे परम् ब्रह्म कैसे माना जा सकता है ? श्री भगवान ने उत्तर दिया संसार में नाम के बिना ज्ञान नहीं होता है और यह नाम अक्षर के बिना सम्भव नहीं है। ॐकार के बिना - अक्षर की भी स्थिति नहीं है / वाक्य और वाचक में एकता रहती है। इस ॐ के अकार सम्पूर्ण वर्णमातृका में समाविष्ट है। यह अकार सभी वर्गों में मुख्य तथा नाभी से उत्पन्न है, पवन (मरुत्) इसकी योनि (माता) है। प्रथम जिनेश्वर ऋषभदेव भी नाभि राजा से मरुदेवी में उत्पन्न है। जिस प्रकार अकार के संवृत विवृतादि चौबीस रूप हैं वैसे ही ये तीर्थङ्कर भी चौबीस हैं। यह अकार परमात्मा है, विश्वम्भर है एवं अव्यय है। ॐकार इसका सूत्र है अतः न्यास IN पूर्वक जो इसका उच्चारण करता है वह शब्द मात्र से त्रिभुवन को ब्रह्मतेज से आविष्ट कर लेता है। * * * षड्विंशोऽध्यायः 235 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org