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चतुर्विंशोऽध्यायः
श्री गौतम उवाच
ऐश्वर्यवान् शिवः सिद्धो ऽर्हन्नथ परमेश्वरः । तदा किं पारमेश्वर्यं लोकालोकव्यवस्थितम् ॥ १ ॥
अन्वय-अथ सिद्धाः शिवः अर्हन् परमेश्वरः ऐश्वर्यवान् तदा लोकालोकव्यवस्थितं परमैश्वर्य किं ॥ १ ॥
अर्थ- श्री गौतमस्वामी ने पूछा कि जब परमात्मा सिद्ध है, शिव है, भ्रहन् है एवं ऐश्वर्य सम्पन्न है तो लोक और अलोक में स्थित यह पारमैश्वर्य क्या है ?
श्री भगवानुवाच आधेयनामधारेऽपि सुरविम्वेऽपि सूरवत् । धनवन्नगरं नाम सबलस्तनिवासतः || २ ॥
अन्वय - सुरबिम्बे अपि सूरवत् आधेयनामधारे अपि धनवत् नाम नगरं तन्निवासतः सबलः ॥ २॥
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अर्थ - श्री भगवान ने उत्तर दिया- आधेय मात्र को धारण करने वाले सूर्यबिम्ब को भी सूर्य कहा जाता है । उसी प्रकार धनवानों से युक्त नगर को धनवान नगर तथा बलवानों के निवास से उस नगर को बलवानों का नगर कहा जाता है ।
विवेचन - जैसे मिट्टी के घड़े में घी होने से उसे घी का घड़ा कहते हैं और जैसे सूर्य बिम्बको सूर्य कहा जाता है वैसे आधेय से भिन्न होते हुए भी आधार पदार्थ को आधेय स्वरूप माना जाता है ।
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अर्हद्गीता
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