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चतुर्विंशोऽध्यायः
गुरु परमात्मा स्वरूप हैं
[ श्री गौतम स्वामी ने पूछा है कि जब परमात्मा सिद्ध शिव अथवा अर्हत् है तो लोक एवं अलोक में स्थित यह पारमैश्वर्य क्या है ? श्री वीतराग ने कहा कि जिस प्रकार सूर्य बिम्ब को भी सूर्य ही कहा जाता है डांगर और चंदन अग्नि में डालने पर अग्नि ही कहे जाते हैं । घर के एक भाग में चित्रण हो तो पूरा घर चित्रित माना जाता है एवं गाँव के सीमान्त को भी गाँव ही कहा जाता है। इसी प्रकार ब्रह्म के आधार मात्र से यह लोक भी ब्रह्म रूप में प्रतिष्ठित है। इसी नय से अर्हत् परमेष्ठि को ज्ञानवान गुरु रूप में कहा गया है उनका विनय धर्म का मूल है। गुरू की कृपा द्रष्टि आत्मा में शुभ भाव की अभिवृद्धि करती है। गुरू संसार में नेत्र है, दीप है तथा सूर्य चन्द्रवत् है। वे देवता हैं एवं सद्गति के मार्ग प्रकाशक हैं। गुरू में गौरव है क्योंकि बे न्यून को पूर्ण करते हैं अतः गुरू में एकाग्र भावना प्रथम मंगल है । इन्हीं गुरू के मिलने से शब्द ब्रह्म तथा अक्षर ब्रह्म दोनों की प्राप्ति होती है अतः गुरू संसार में प्रत्यक्ष परमेश्वर है। अर्थात् आधार आधेय न्याय से पारमैश्वर्य गुरू में प्रतिष्ठित होकर प्रत्यक्ष होता है।]
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चतुर्विंशोऽध्यायः
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