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अन्वय-लोकाकृतेः भावनया संवरे (अपि) लोकबन्धनं । अस्मात् संस्थान विचयं धर्मध्यानं इह आगमे उक्तम् ॥ १९ ॥
अर्थ-लोक के पुरूषाकृति रूपम्थ ध्यान से जो ध्यान किया जाता है वह संवर रूप होते हुए भी लोक बन्धनकारी है। इसीलिए आगम में इसे संस्थानविचय नामक धर्म ध्यान कहा गया है। अर्थात् लोक के रूपस्थ ध्यान से उपर ऊठकर रूपातीत ध्यानमें साधक का प्रवेश न हो तब तक बंधन का नाश नहीं होता है।
नामाकृतिद्रव्यभाव-रेवं श्रीपरमेश्वरम् । रागद्वेषपरित्यक्तं शिवं शान्त्यात्मकं भजेत् ।। २० ।।
अन्वय एवं नामाकृतिद्रव्यभावः रागद्वेषपरित्यक्तं शिवं श्री परमेश्वरं भजेत् ॥ २० ॥
अर्थ-इस प्रकार नाम आकृति द्रव्य और भाव से रागद्वेष से रहित वीतराग शान्तमूर्ति शिवरूप श्री परमेश्वर का भजन करना चाहिए।
सोऽपि क्रमेण तादात्म्यं माहात्म्यादस्य संस्पृशेत् । भक्तिरेव माहाभक्तिः व्यक्ता भगवती विभोः ॥ २१ ॥
अन्वय-सः अपि क्रमेण अस्य माहात्म्यात् तादात्म्यं संस्पृशेत् विभोः भगवती भक्तिः एव महाभक्तिः (इति) व्यक्ता ।
अर्थ-और भजन करने वाली यह आत्मा भी क्रमशः परमात्मा के माहात्म्य के कारण परमात्म रूप को प्राप्त करती है। परमात्मा की यह भगवती भक्ति ही महाभक्ति के रूप में प्रसिद्ध है।
॥ इति श्रीअर्हगीतायां त्रयोविंशोऽध्यायः ॥
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अर्हद्गीता
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