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अन्वय-नरः हृदि यत् आकारं ध्यायेत् तद्पं प्राप्नुधात् । धवल ध्यानधारया सविषः निर्विषः किं न ॥ १६ ॥
अर्थ-मनुष्य अपने हृदय में जिस आकार का ध्यान करता है वह उसी रूप को प्राप्त करता है तो क्या शुक्ल ध्यान की धारा से विषयुक्त चित्त को निर्विष नहीं बनाया जा सकता है ? अर्थात् शुक्ल ध्यान के चिन्तन से आत्मा को शुद्ध किया जा सकता है।
देवस्य स्मरणान्मंत्रा-धिष्ठातांगेऽस्य तन्मये । दृश्योवतणा(रणा)त् साक्षा-द्वाक् प्रतीतिः किमन्यथा ॥ १७ ॥
अन्वय-देवस्य स्मरणात् अस्य तन्मये अंगे मंत्राधिष्ठाता साक्षात् अवतरणात् दृश्यः (भवति ) वाक् प्रतीतिः किं अन्यथा (भवति ) ॥१७
अर्थ-जिस प्रकार देवता के स्मरण से मनुष्य के शरीर में उस मंत्र का अधिष्ठाता देव साक्षात् अवतरित होता हुआ दिखाई देता है। इस प्रकार की प्रतीति क्या कभी अन्यथा हो सकती है ? अर्थात् इन घटनाओं में संदेह का अवकाश नहीं है।
पिण्डस्थाच पदस्थं तद्ध्यानं श्रेष्टमतः पुनः । रूपस्थं पुरूषाकारं रूपातीतं ततोऽपि च ॥ १८ ॥
अन्वय-पिण्डस्थात् च पदस्थं तद्ध्यानं अतः श्रेष्ठं पुनः पुरूषाकारं रूपस्थं ततः अपि च रूपातीतं भवति ।।१८।।
अर्थ-पिण्डस्य ध्यान से उन परमात्मा का पदस्थ ध्यान उत्तम है रूपस्थ ध्यान तो पुरुषाकृति है उससे भी श्रेष्ठ रूपातीत ध्यान है ।
लोकाकृतेर्भावनया संवरे लोकबंधनम् । संस्थानविचयं धर्म-ध्यानमस्मादिहागमे ॥ १९ ॥
त्रयोविंशोऽध्यायः
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