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एव श्रीभगवानहन सिद्धः सर्वगतः शिवः । तेनोक्तः समयो वेदः पौरूषेयः प्रगीयते ॥ १३ ॥
अन्वय-एवं अर्हन् भगवान् , सर्वगतः शिवः सिद्धः तेन उक्त, समयः वेदः पौरूषेयः प्रगीयते ॥१३॥
अर्थ-(तद्रप होनेसे ) इस प्रकार श्री अर्हन् भगवान सर्वज्ञ या सर्वव्यापी, शिव तथा सिद्ध कहे गये हैं; उनके सिद्धान्त एवं वचन मानव मात्र के कल्याण के लिए होते हैं ।
तस्यैव भजनाल्लोकः स्वयं तद्गुणभाजनम् । पुष्पवासनया तैलं नैव किं तन्मयीभवेत् ॥ १४ ॥
अन्वय-तस्यैव भजनात् लोकः स्वयं तद्गुणभाजनं (भवति) किं पुष्पवासनया तैलं तन्मयी नैव भवेत् ।। १४ ॥
अर्थ-उसी आगम अथवा अरिहन्त भगवान के भजन से संसार स्वयं उनके गुणों का पात्र बन जाता है। क्या फूलों की सुगन्ध से तैल सुगन्धित नहीं होता है ? अर्थात् होता है।
जपनामापि तस्येह तन्मुक्तौ स्थापयन्मनः । तन्मयी स्याद् ध्यानबलात् पानीयममृतं न किम् ।। १५॥
अन्वय-इह तस्य जपनाम अपि मनः तन्मुक्तौ (स्थापयत् ) ध्यानबलात् तन्मयी स्याद् किं पानीयं अमृतं न ॥ १५॥
अर्थ-उन परमात्मा के नाम मात्र के जप से एवं मन से मात्र मुक्ति की अभिलाषा करते हुए उनके ध्यान के बल से मनुष्य परमात्म-मय हो जाता है। क्या ध्यान बल से प्रभावित करने पर पानी अमृत नहीं होता है ? अर्थात् होता है ?
यदाकारं हृदि ध्यायेन्नरस्तद्रपमाप्नुयात् ।
सविषो निर्विषः किं नो धवलध्यानधारया ॥ १६ ॥ २१६
अर्हद्गीता
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