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धातुना धातुशुद्धिः स्यात् जलशुद्धिर्जलोत्तमात् । वायुना वायुशुद्धत्वमात्मशुद्धिस्तथात्मना ॥ १० ॥
अन्वय-(यथा ) धातुना धातुशुद्धिः (स्यात्) जलोत्तमात् जलशुद्धिः वायुना वा वायुशुद्धत्वं तथा आत्मना आत्मशुद्धिः स्यात् ॥१०॥
अर्थ-जिस प्रकार धातु से धातु की शुद्धि होती है। और गंगाजलादि उत्तम जल से सामान्य जल को शुद्ध किया जाता है। धूपादि युक्त सुगंधित वायु से वायु की शुद्धि होती है वैसे ही शुद्ध आत्मा के ध्यान द्वारा साधक आत्मा की शुद्धि होती है।
पूर्वयोगीश्वरध्याना-नैर्मल्यं परयोगिनि ।। योऽयं ध्यायति यद्रपं तद्रपं लभते स वै ॥ ११ ॥
अन्वय-पूर्वयोगीश्वर ध्यानात् परयोगिनि नैर्मल्यं यः अयं यद्रूपं ध्यायति स वै तदरूपं लभते ॥ ११ ॥
अर्थ-पूर्व में हुए योगीश्वरों के ध्यान से पश्चात् में होने वाले योगियों में निर्मलता का अनुसंधान होता है। क्योंकि जो जिस प्रकार के रूप का ध्यान करता है वह निश्चय रूप से उसी प्रकार के स्वरूप को प्राप्त करता है।
संसर्गयोगात्ताद्रप्ये शुकद्वयनिदर्शनम् । हस्ती सेचनको यदा युक्तिनिम्बाम्रयोरपि ॥ १२ ॥
अन्वय-संसर्गयोगात् ताप्ये शुकद्वयनिदर्शनम् हस्ती सेचनको यद्वा निम्बाम्रयोः अपि युक्तिः ॥ १२॥
___ अर्थ-(अनुसंधान या) संसर्ग के योग से तद्रूपता या (समान गुण) की प्राप्ति होती है जिस प्रकार भीलों की बस्ती का तोता अशुद्ध भाषी एवं आश्रम का तोता शुद्ध भाषी होता है।
संसर्ग के कारण जैसे भीलों के घर रहा हुआ तोता अपशब्दभाषी तथा आश्रम का तोता मधुरभाषी होता है। इसी प्रकार हस्ती सेचनक एवं नीम एवं आम के उदाहरण संसर्ग योग के सिद्धान्त की पुष्टि करते हैं।
त्रयोविंशोऽध्यायः
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