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________________ अर्थ - यह आत्मा निश्चय नय से तो शुद्ध स्वरूपात्मक है परन्तु व्यवहार नय से यह काम, क्रोध, रागद्वेषादि से कलुषित है। जैसे सोने के कलश में जल समल अथवा निर्मल होने से वह कुम्भ भी दो प्रकार का होता हैं । अर्थात् जलके भेद से एक ही कुम्भ के भी दो भेद हो जाते हैं। 1 कर्मवद्धो भवेज्जीवः कर्ममुक्तो भवेच्छिवः । इतिस्मार्त गिरा बोध्यं द्वैविध्यं परमात्मनि ॥ ७ ॥ अन्वय- कर्मबद्धः जीवः भवेत् कर्ममुक्तः शिवः भवेत् इति स्मार्तगिरा परमात्मनि द्वैविध्यं बोध्यम् ॥ ७ ॥ अर्थ -- कर्मबद्ध आत्मा जीव है और कर्ममुक्त आत्मा शिव है इस प्रकार के शास्त्र वचन से परमात्मा में द्वैविध्य का ज्ञान होता है। ध्येयः पूज्योऽथवा सेव्यः सोऽप्यात्मा परमेश्वरः । ध्याताप्यैवं तथाप्युच्चैः काचमण्योरिवान्तरम् ॥ ८ ॥ अन्वय- सः अपि आत्मा परमेश्वरः ध्येयः पूज्यः अथवा सेव्यः ( अस्ति ) एवं ध्याता अपि ( अस्ति ) तथापि काचमण्योः इव उच्चैः अन्तरम् ॥ ८ ॥ अर्थ-बही आत्मा परमेश्वर हैं, ध्येय है, पूज्य है अथवा सेव्य हैं और ध्याना भी यही है फिर भी इनमें ( ध्याता और ध्येय में ) कांच और मणि की तरह स्पष्ट रूप से अन्तर है । २१४ मायान्वितः परब्रह्म केवलब्रह्मसेवया । नैर्मल्यमश्नुते योगस्तेन सर्वत्र संमतः ॥ ९ ॥ अन्वय-मायान्वितः परब्रह्मः केवलब्रह्मसेवया नैर्मल्यं अश्रुते तेन योगः सर्वत्र सम्मतः ॥ ९ ॥ अर्थ - माया से युक्त परब्रह्म ( ध्यान योग ) केवल शुद्ध ब्रह्मकी सेवा से निर्मलता को प्राप्त करता है इसीलिए ध्यानयोग का सर्वत्र सम्मान है । अर्हद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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