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उज्ज्वलः कम्बस्तिक्ता शुण्ठी सुरभि चन्दनम् । गृहीतेऽग्निमयेंगारे वाच्यः किं नाग्निसंग्रहः ॥ ३ ॥
अन्वय-उज्ज्वलः कम्बलः तिक्ता शुष्टी. सुरभि चन्दनं गृहीते अग्निमये अंगारे किं अग्निसंग्रह न वाच्यः ॥ ३॥
अर्थ-(जैसे) कम्बल उज्ज्वल होता है। सूंठ तीखी होती है तथा चन्दन सुगन्धित होता है परन्तु अग्नि में डालने पर क्या उन्हें अग्नि नहीं कहा जायगा अर्थात् वे भी अग्निमय हो जायेंगे।
चित्रिते गृहदेशेऽपि गृहं चित्रितमुच्यते । चन्द्रेकदेशे दृष्टेऽपि दृष्टश्चन्द्रो नवोदितः ॥ ४ ॥
अन्वय-गृहदेशे अपि चित्रिते गृहं चित्रितं उच्यते एकदेशे चन्द्रेदृष्टे अपि नवोदितः चन्द्रः दृष्टः भवति ॥ ४ ॥
अर्थ-जिस प्रकार घर के एक भाग में चित्रण करने पर भी समग्र घर चित्रित माना जाता है वैसे ही चन्द्र के एक देश अर्थात् बालचन्द्र के कहीं भी एक स्थल से दिखने पर सभी यही मानते हैं कि उन्होंने चन्द्वमा देखा है क्या ऐसी जनोक्ति नहीं होती ?
समुद्रो भूः समुद्रस्य ग्रामभूः ग्राम इत्यपि । यद्वा कणोऽपि लवणं राशिलवणमेव हि ॥५॥
अन्वय-समुद्रस्य भूः समुद्रः ग्रामभूः अपि ग्रामः इति। यद् लवणं कणः वा राशिः तद् लवणं एव हि ॥ ५ ॥
अर्थ-समुद्र की भूमि भी समुद्र कहलाती है एवं गांव का सीमान्त भी गांव कहलाता है अथवा नमक का कण हो या नमक का ढेला हो दोनों ही नमक ही कहलाते हैं।
इत्यसौ केवलब्रह्माधारात् सद्भिः प्रगीयते । लोकालोकोऽपि तद्रूप-स्तद्योगे तत्त्वनिश्चयात् ॥ ६ ॥
चतुर्विशोऽध्यायाः
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