SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्रयोविंशोऽध्यायः श्री गौतम उवाच ऐक्यं यदात्मने स्वामिन्नथैवं परमेशितुः । ध्यानं दानं तपः स्थानं किमर्थं क्रियते तदा ॥ १ ॥ अन्वय-स्वामिन् ! अथ परमेशितुः आत्मनि यदा एवं ऐक्यं स्यात् तदा ध्यानं, दानं, तपः स्थानं किमर्थं क्रियते ॥१॥ अर्थ-श्री गौतमस्वामी ने भगवान से पूछा कि हे स्वामी। यदि परमात्मा का आत्मा में जब इस प्रकार ऐक्य है तो फिर ये ध्यान दान था तपादि क्यों किए जाते हैं ? आत्मायं मुक्त एवास्ति निश्चयात्केवलात्मकः । स्वरूपावस्थितः शुद्धः सिद्धः शिवे भवेऽप्यहो ॥ २ ॥ अन्वय-अहो अयं आत्मा निश्चयात् केवलात्मकः मुक्तः एव अस्ति स्वरूपावस्थितः शुद्धः शिवे भवे अपि सिद्धः ॥२॥ अर्थ-वस्तुतः यह केवलात्मक आत्मा निश्चय नय से मुक्त ही है अपने स्वरूप में स्थित होने के कारण यह शुद्ध है एवं मोक्ष तथा संसार में भी यही सिद्ध स्वरूप है। श्री भगवानुवाच व्यक्ताव्यक्तया द्वेधा परापरतयाऽथवा । व्रीहितन्दुलगत्यैको-प्याम्नातः परमः प्रभुः ॥ ३ ॥ अन्वय-(अयं आत्मा) व्यक्ताव्यक्तया द्वेधा अथवा परापरतया द्वेषा व्रीहि तन्दुल गत्या परमः प्रभुः अपि एकः आम्नातः ॥३॥ अर्थ-श्री भगवान ने कहा, हे गौतम यह आत्मा व्यक्त और अव्यक्त अथवा पर और अपर रूप से दो प्रकार की है। परम प्रभु को चावल २१२ अर्हद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy