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________________ त्रयोविंशोऽध्यायः ध्यानादि की आवश्यकता [ श्री गौतम स्वामी ने पूछा है कि जब आत्मा व परमात्मा में ऐक्य है तो फिर ध्यान, दान, तपादि क्रियाएँ क्यों की जाती हैं ? श्री भगवान ने उत्तर दिया आत्मा एवं परमात्मा डांगर व चावल के न्याय से एक ही हैं जैसे डांगर ( छिलके सहित चावल ) का अंकुरण सम्भव है परन्तु चावल का अंकुरण सम्भव नहीं है वैसे ही आत्मा कर्मावरण से युक्त होने के कारण भव भ्रमण करती है परन्तु परमात्मा मुक्त हैं । कर्म बद्ध आत्मा जीव व कर्म मुक्त आत्मा शिव कहलाती है । जिस प्रकार धातु से धातु की शुद्धि एवं गंगाजल से सामान्य जल की शुद्धि होती है वैसे ही परमात्मा के ध्यान से यह राग द्वेषयुक्त आत्मा शुद्ध की जाती है । परमात्मा के जाप से तद्रूपता की प्राप्ति होती है। अतः संसार में ध्यान जपादि के साधन से परमेश्वर से अनुसंधान होता है और साधक निश्चय ही ध्येयाकार होकर सिद्धि को प्राप्त करता है । ] त्रयोविंशोऽध्यायः Jain Education International *** For Private & Personal Use Only २११ www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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