________________
तीसवे अध्याय में श्री गौतम स्वामी ने पूछा है कि वर्ण मातृका में ॐकार प्रधान है एवं ॐकार में भी अकार की प्रधानता है तो फिर इस अकार से, अरिहंत भगवान् लें या ब्रह्मा, विष्णु-महेश । श्री भगवान्ने कैवल्य के कारण अकार से अर्हत् का ग्रहण करने का आदेश दिया है क्योंकि अकार की प्रकृति सरल एवं धवल है। उसने कृष्ण का ग्रहण नहीं हो सकता । यहाँ एक नया सूत्र आध्याय जी ने प्रस्तुत किया है "अं नमः " क्योंकि अ से आदि देव ऋषभदेव एवं म से महावीर । इस प्रकार " अं नमः " में आदिनाथ से महावीर पर्यन्त २४ तीर्थ करों का वन्दन हो जाता है
अइत्यहन् आदिदेवो-महावीरो मति स्मृतः ।
अं नमः कथनादहश्चतुर्विंशतिमानमेत् ॥ १४ ॥
इस अध्याय में अकार के अनेक महत्त्व बताते हुए उसमें अहंद्भगवान् का ग्रहण करने का आदेश दिया है । यह अकार इषत् प्राग-भारिका स्थित है, अतः अपनी इष्ट सिद्धि के लिये अकार से अरिहन्त भगवान् का ही ग्रहण करना चाहिये ।
इकत्तीसवे अध्याय में शंकाओ का समाधान तो हो गया है और अब अरिहंत भगवान् में स्थित कुछ भावों का प्रकाशन गौतम स्वामी ने चाहा है जिससे वे पवित्रात्मा हो जायं । यहाँ भगवान् ने अर्हत् भगवान् का स्वरूप निरूपण किया है कि अर्हद् भगवान् सहनशीलता में साक्षात् पृथ्वी, चित्त की निर्मलता में समुद्र जल, अप्रतिहत गति के कारण वायु एवं उग्र तपस्या के तेज से साक्षात अग्नि है । अप्रतिहत गति के कारण तीक्ष्ण किरणों से शोभित सुवर्गभास्कर सूर्य हैं तथा प्रकृति जैसे सौम्य होने के कारण चन्द्रमा हैं एवं निरालम्वता के कारण वे आकाश रूप हैं। कितनी विश्वजनीन व्याख्या प्रस्तुत की है--
तितिक्षयान्नवनी च साक्षात् शुद्धोऽम्बुराशेर्जलवत् स्वचित्ते । तथाऽनिलोप्यऽप्रतिबद्धचारेऽनलप्रभावस्तपसोग्रधाम्ना ॥ १० ॥ गत्यांशुमानप्रतिहन्यमान-स्तीक्ष्णांशुमालीव सुदीप्रतेजाः सोम्यः प्रकृत्या अमृतांशुरूपः सदानिरालम्बतयांबराभः ॥११॥
इस अध्याय में ' राम ' में २४ तीर्थंकरो की सिद्धि की गई है। र ऋषभवाची आ से आदि एवंम से महावीर । इस प्रकार ' राम' से ऋषभदेव से लेकर महावीर तक के २४ तीर्थंकरो की सिद्धि हुई--
ऋकारतः श्रीऋषभाख्यान आकारतत्तवाद्यईतो मकारः। श्रीमान् महावीर इति प्रसिद्धा-रामे चतुर्विंशतिराहतीयम् ॥१३॥
बत्तीसवे अध्याय की समस्या जिज्ञासा मूलक है। सभी स्वरों में अर्हद् भगवान् की प्रभावना को ही जाय ? यहाँ अकार में सभी चौबीस तीर्थंकरो की सिद्धि भगवान
२२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org