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________________ ने की है। उन सबमें अर्हन्त्य की प्रतिष्ठा है-एकता में अनेकता । ॐकारादि मंत्र यंत्रो से उनका कथन किया जाता है-- एकोऽनेकः स्त्रैर्गुणेरैन्द्रवंद्यं ॐकाराद्यै मंत्रयंत्रनिवेद्यः ॥ २० ।। तैंतीसवे अध्याय की समस्या है कि धर्मसभा के सदस्य यह कैसे निर्णय करें कि शास्त्र के बिना ज्ञानी नहीं और मातृका के बिना शास्त्र नहीं क्योंकि मातृका माता के समान है तथा माता की तरह उसका सबको ध्यान करना चाहिये । भगवान् ने मातृका के सार ॐ का महत्त्व बताया है कि नमस्कार विनय है, ज्ञान विनय मूलक है तथा क्रिया ज्ञान मूलक है। इस ज्ञान तथा क्रिया से सिद्ध बना जाता है। यहाँ सभी स्वरों का महत्त्व अलग से प्रतिपादित किया गया है। प्रत्येक स्वर में पंच परमेष्ठि भगवान् की स्थापना की गई है जैसे ऋ स्वर में ऋषभदेव भगवान् की स्थापना देखिये ऋस्वरे वीतरागत्वं दीर्घोऽयं च महात्मनि । एषां समानता तस्माच्छब्दार्थयोरमेदतः ।। १३ ।। ऋस्वर ऋषभवाची होने से वीतरागत्व का द्योतक है। दीर्घ ऋ ऋषिवाचक है। दोनों में समानता होने से शब्द और अर्थ के अभेद के कारण इन ऋऋ स्वरों में समानता रहती है। अ इ उ ऋल पंच ह्रस्वाक्षर उच्चार प्रमाण काल में ही मुक्ति हो जाती है। इसका वर्णन इस प्रकार किया गया है " अ ई उ ऋल इत्यस्य सूत्रस्योच्चारमात्रतः। नियंञ्जनत्वे सिद्धिःस्यान्नृणां सिद्धान्तसम्मता ॥ १४ ॥" चौतीसवे अध्याय में पूछा गया है कि ३८ व्यंजनों में आर्हन्त्य की सिद्धि कैसे की जाये ? तब भगवान ने ककार से लेकर क्ष लं वं तक अमार को सिद्धि की है जो अरिहंत वाची है। तीसरे अध्याय में मातृकोपदेश से लोकालोक का स्वरूप बताया है । मातृका का आधार लेकर ऊन लोक, अधोलोक, दश असुरदण्डक, नव गैवेयक, पांच अनुत्तरलोक आदि का निरूपण किया गया है। इस अध्याय की विशेषता है नमः शब्द में २४ तीर्थंकरों की सिद्धि खाओं के अंकन द्वारा की गई है। यदि गोलाई रहित न लिखा जाये तो उसमें आठ रेखायें होंगी। अ में एक रेखा, म में नौ रेखायें एवं विसर्ग में छः रेखाएँ कुल २४ रेखायें हुई जो तीर्थकरवाची हैं। इसका निरूपण इस प्रकार किया जा सकता है। २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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