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________________ "न्यासतोऽप्यव्ययं वक्ति ॐकारः शक्तिमान् स्वयम् । ' शब्दादपि क्षणाल्लोकं व्याप्तोहि ब्रह्मतेजसा ।।२१॥" सत्ताइसवे अध्याय की शंका है कि शिव स्वरूप को प्राप्त करने की इच्छा वाले व्यक्ति को क्या धार्मिक कार्य करने चाहिये । यहाँ भगवान् ने प्रत्युत्तर में सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, तथा सम्यक् चारित्र का स्वरूप समझाया है । ऋषभदेव भगवान् की शिव, राम, विष्णु से एकता प्रतिपादित की गई है। मत्स्य, कूर्म, वराह, घोडा, हाथी, सिंह आदि लंछन तथा सूर्य चन्द्रादि ग्रह इसीलये पूज्य हैं कि वे भगवान् के चरणकमल में स्थित हैं । यहाँ सत्संगति की महिमा प्रकारान्तर से प्रतिष्ठित हुई है। भगवान् के लंछन एवं ग्रह इसलिये पूज्य हैं कि वे भगवान् के चरण कमलों में लीन हैं। ___ अठाईसवे अध्याय की समस्या विचित्र है। संसार में धर्म शास्त्रों में, क्रियाओं में, वेष में, अनुयोग में एवं आचार में सर्वत्र भेद दिखाई देता है। सभी अपने धर्म को शुद्ध एवं दूसरे के धर्म को दुष्ट कहते हैं तो इसके लिये क्या करें ? भगवान् ने उत्तर में कहा कि दया, शील, तप एवं श्रुत से धर्म की परीक्षा करनी चाहिये । जिस प्रकार कसौटी से उत्तम स्वर्ण की परीक्षा की जाती है। इसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल, एवं भाव के अनुसार मनुष्य को अपनी बुद्धि को तत्त्व चिंतन में लगाना चाहिये या गतिः सा मतिरिति न्यायात्तत्त्वेप्यतत्वधीः । द्रव्यक्षेत्रकालभावान्नान्वेति प्रायशो मतिः ॥३॥ तस्या नैर्मल्यसम्पत्यै दयाशीलतपःश्रुतैः। परीक्षणीयो धर्मोऽपि कषैः स्वर्णमिवोत्तमैः।। ४ ॥ उन्तीसवे अध्याय में प्रश्न है कि मातृका में सारा विश्व प्रकाशित है एवं पंच परमेष्ठि प्रतिष्ठित हैं। यह अव्यक्त एवं अक्षर भी हैं इसको लिखने से पूर्व दो रेखाओं को लिखने का क्या कारण है ? श्री भगवान् ने समझाया है कि जो मातृका पहले नाभि में अव्यक्त रूप से थी वही बादमें लिखने पर व्यक्त हो जाती है जैसे ग्रंथकार पहले मानस में अव्यक्त रूप से ग्रंथ का संयोजन करता है और बादमें उसका प्रकटन करता है । जो वस्तु पहले अव्यक्त होती है वही बाद में व्यक्त हो जाती है। इसको यों समझा जाता है सूक्ष्म-पंचतन्मात्राएं अव्यक्त रहती हैं परन्तु बाद में व्यक्त होने पर आत्मा सहित पंच भूत के रूप में प्रकट होती है । यहाँ फिर ॐकी व्याख्या की गई है कि यह फणधारी नागराज शेष है, गणेश है। मातृका में साठ वर्ण इसलिये ह कि साठ अक्षरों का एक पल, साठ पलों का एक दण्ड, साठ दण्डों का एक दिन रात, साठ दिनों का एक ऋतु एवं साठ ऋतुओं की एक वर्ष वीसी सिद्ध होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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