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तो यहाँ उससे भी बढ़ कर बात कही गई है-- “गुरुर्नेत्रं गुरुर्दीपः सूर्याचन्द्रमसौ गुरुः।
गुरुर्देवो गुरुपन्था दिग्गुरुः सद्गति गुरुः ।। १५॥”
और यहाँ गुरु को साक्षात् परमेश्वर सकारण ही बता दिया गया है केवल उपाधि रूप नहीं
"गुरुः पोतोदुस्तरेऽन्धौ तारकः स्याद्गुणान्वितः ।
साक्षात्पारगतः श्वेतपटरीतिं समुन्नयन् ॥ ३०॥" " स्यादक्षरपदप्राप्ति द्वैधापि गुरुयोगतः ।
गुरुरूपेण भूभागे प्रत्यक्षः परमेश्वरः ॥२१॥"
पच्चीसवे अध्याय में पूछा है कि कैवल्य सिद्धि के लिये सर्व प्रथम क्या करना चाहिये ? इसमें पाणिनि व्याकरण के सूत्रानुसार आत्मा, पंचपरमेष्ठि, मोक्ष आदि समझाये गये हैं। ॐ में अधोलोक उर्ध्व लोक एवं मृत्यु लोक तीनों समाये हुए हैं। अ से आत्मा, उसे उसकी वितर्कावस्था एवं म से मोक्ष । अइउण सूत्रानुसार अ से आत्मा, उ से उपयोग एवं म से महानन्द अर्थात् आत्मा उपयोग से महानन्द स्वरूप मोक्ष को प्राप्त कर सकती है । यह ॐकार परमेश्वर है--
“अत्युकारे मकारे च त्रिपदी या व्यवस्थिता । .. तन्मयस्त्रिजगद्व्यापी ॐकारः परमेश्वरः ।। २१॥"
छब्बीसवे अध्याय की समस्या है कि ॐकार त्रिजगद्व्यापी है इसका निश्चय कैसे किया जाये ? भगवान् ने स्पष्ट किया है कि " नोंकारेण विनाक्षरम् " ॐकार के बिना कोई अक्षर ही नहीं है । समस्त स्वरों तथा व्यंजनों में अकार ही सब कुछ है
"अकारो वर्णमुख्योऽयं केवलात्मा स तीर्थकृत् ।।
नामिभूर्मरुदेवास्य योनिलोके प्रसिद्धिभाक् ॥ १५॥"
अकार वर्गों में मुख्य है केवलात्मा, तीर्थंकर । यह नाभि से उत्पन्न है एवं पवन उसकी योनि है । मुद्रालङ्कार एवं श्लेषालंङ्कार की छटासे अकार को ऋषभदेव की संज्ञा दी गई है कि वह अकार स्वरूप तीर्थंकर परमात्मा नाभिराजा से उत्पन्न है। मरुदेवी इनकी माता है, ऐसी लोक में प्रसिद्धी है । अन्त में तो यहाँ तक कह दिया है कि " अंकारं सर्वग जपेत् " सब वर्गों में अवस्थित ॐकार की उपासना करो क्योंकि यह अव्यय ॐस्वयं शक्तिमान है एवं इसके शब्दोच्चारण मात्र से समस्त लोक क्षण मात्र में ब्रह्मतेज से व्याप्त हो जाता है--
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