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द्वाविंशतितमोऽध्यायः
एकता और अनेकता
[श्री गौतम स्वामी ने पूछा है आत्मा में एकत्व सिद्धि होने पर यह निश्चय होता है कि परमात्मा एक ही है पर आत्मा में अनेक रूपता कैसे दिखाई देती है ?
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श्री भगवान ने उत्तर दिया कि लोकालोकात्मक वस्तु द्रव्य रूप से एक ही है किन्तु पर्याय की दृष्टि से उसमें अनेकता प्रतिभासित होती है। एक ही सत्तारूप वस्तु में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से बहुत प्रकार के पर्यायों का उदय होता रहता है। अर्हतों के अर्हत्व एवं सिद्धों के सिद्धत्व में अन्तर है पर उनमें शाश्वत एकता है। आत्मा भी क्षेत्रज्ञ
और परमात्मा दो प्रकार की होती है परन्तु द्रव्य रूप से वह एक ही है। अकार एक ही है पर संवृत विवृत भेद से वह २४ प्रकार का होता है। वैसे ही स्वरूप से एक ही सिद्ध जिनेश्वर में अनेकता आरोपित की जाती है। जैसे एक ही सूर्य बारह प्रकार का माना जाता है वैसे ही एक ही अर्हत् २४ तीर्थङ्करों के रूप में पूजे जाते हैं। ]
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अईद्गीता
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