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________________ आदि है वही भविष्य में विकास की चरम सीमा को छूकर परमेश्वर होने वाले हैं। यावद्भ्रमति संसारे रागद्वेशवशंवदः । आत्मा न पारमैश्वयं तावत्पाप्नोति निश्चयात् ॥ १९ ॥ अन्वय-आत्मा रागद्वेषवशंवदः यावत् संसारे भ्रमति तावत् निश्चयात् पारमैश्वर्यं न प्राप्नोति ॥ १९ ॥ अर्थ-(परंतु ) जब तक रागद्वेष से वशीभूत होकर यह आत्मा संसार में परिभ्रमण करती है तब तक निश्चित रूप से वह आत्मा पारमैश्वर्य पद की प्राप्ति नहीं कर सकती है। यस्यातिशयसाम्राज्यं जगदाश्चर्यकारणम् । शुद्धयोगेन योगी यः स देवः परमेश्वरः ॥ २० ॥ अन्वय-यस्य जगदाश्चर्यकारणं अतिशय साम्राज्यं (अस्ति) यः शुद्धयोगेन योगी, स देवः परमेश्वरः ॥ २० ॥ अर्थ-जिसका जगत आश्चर्य जनक महान् साम्राज्य है और जो शुद्ध योग से योगी है वही देव है और वही परमेश्वर है। नानाजनानामित्युक्त्या निर्णीय परमेश्वरम् । तस्यैव भक्तिराधेया प्रेयान् यदि महोदयः ।। २१ ॥ अन्वय-इति नानाजनानां उक्त्या परमेश्वरं निर्णीय यदि महोदयः प्रेयान् तस्यैव भक्ति आधेया ॥ २१ ॥ अर्थ-इस प्रकार नानाविध लोगों की उक्तियों के द्वारा परमेश्वर का निर्णय कर यदि हम अपने महोदय को चाहते हैं तो उसी की भक्ति करें। ॥ इति श्री अर्हद्गीतायां एकविंशतितमोऽध्यायः॥ एकविंशतितमोऽध्यायः २०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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