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ज्ञानदर्शनचारित्र-साधनाय विधीयते । आरंभः स ह्यनारंभ आश्रवेऽपि परिश्रवात् ॥ ९॥
अन्वय-ज्ञानदर्शनचारित्रसाधनाय (यः) आरम्भः विधीयते आश्रवेऽपि परिश्रवात् स हि अनारम्भः ॥९॥
अर्थ-ज्ञान दर्शन चारित्र की साधना के लिए जो आरम्भ समारम्भ किया जाता है वह आस्रव होने पर भी संवर रूप होने से आरम्भ माना नहीं जाता है।
विवेचन-जिस प्रवृत्ति से दोष होता है उसे आरम्भ कहते हैं। धार्मिक क्रिया में प्रवृत्ति तो है, एवं उस में स्थूल हिंसा भी होती है। चैत्य का निर्माण, और गृह का निर्माण आश्रव का हेतु है क्योंकि जीव हिंसा बिना वह संभव नहीं है। किंतु चैत्य निर्माण स्थूल द्रष्टि से दोषमुक्त न होने पर भी बहु लोकोपकारी होने के कारण उसे संवर रूप में ही माना गया है और गृह निर्माण द्रव्य और भाव से जीव हिंसा का कारण होने से आश्रव का हेतु है। भाव की अपेक्षा से एक संवरयुक्त और दूसरा आश्रयुक्त है।
यः पुनर्दम्मसंरभसंभवः संवरोऽप्ययम् । तपः स्तेनव्रतः स्तेनादीनामिव महाश्रवः ॥ १० ॥
अन्वय-पुनः यः दम्भसरम्भसंभवः तपः संवरः अपि अयं स्तेनादीनां स्तेन व्रत इव महाश्रवः ॥१०॥
अर्थ-पुनः दम्भ घमण्ड आदि से जो तप किया जाता है एवं व्रत धारण किया जाता है वह संवर होते हुए भी चोरों को चोरी के व्रत के समान महान् आस्रवकारी होता है।
विवेचन-आस्रव युक्त क्रियाएं शुभ भाव से संवर हेतु एवं संवर युक्त क्रियाओं को अशुभ भाव से आस्रव हेतु कैसे होती है यह दिखाया है। चोरी करने का अशुभ व्रत जो लेता है वैसे व्रती संकरयुक्त कैसे हो शकता है ? वैसे ही अशुभ भाव से किया हुआ तप आश्रवकारी होता है।
अष्टादशोऽध्यायः
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