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यस्य संस्कार संस्कारः कलंकविकलं बलम् । च्छलाचलचलं नान्तः करणं स शिवः स्वयम् ॥ ११ ॥
अन्वय--यस्य अन्तःकरणं संस्कार संस्कारः कलंक विकलं बलं छलात् चल चलं न सः स्वयं शिवः ॥ ११ ॥
अर्थ- जिसका अन्तःकरण पावनकारी संस्कारों से संस्कारित है, बल निष्कलंक है और अन्तःकरण छल छद्म से विचलित नहीं है वह आत्मा स्वयं शिव है ब्रह्म है । रागद्वेष रहित महात्मा के जीवन व्यवहार में दोष कैसे हो सकता है ?
शिवे स्थिरश्रियः सोमप्रकृतेर्जगतीश्वरे । महाव्रतानि सार्वज्ञं तस्मिन्न श्रद्दधीत कः ।। १२ ।।
अन्वय - सोमप्रकृतेः स्थिरश्रियः सार्वज्ञं महाव्रतानि (च) जगति तस्मिन् शिवे ईश्वरे कः न श्रद्दधीत ॥ १२ ॥
अर्थ - सौम्य स्वभाव वाले एवं स्थितप्रज्ञ अरिहन्त देव में सर्वज्ञता एवं पंच महाव्रतों का स्वतः समावेश होता है । उस शिव ब्रह्मस्वरूप आत्मा पर संसार में कौन श्रद्धा नहीं रखेगा अर्थात् समग्र संसार उसके प्रति श्रद्धावान होगा ।
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सद्भावेष्वपि चैतन्ये प्राधान्यं वस्तुभासनात् ।
सत्त्वं जीवस्ततोऽजीव स्तदभावः प्रतीतिभाक् ॥ १३ ॥
अन्वय-सद्भावेषु अपि वस्तुभासनात् चैत्यन्यं प्राधान्ये, सत्त्वं जीव ततः तदभावः अजीवः प्रतीतिभाक् ॥ १३ ॥
अर्थ- सद्भावों में भी वस्तु के प्रकाश का कारण होने से चैतन्य की ही प्रधानता है । अतः जो सत्त्व है वह जीव है एवं उसका अभाव जहां हो वह अजीव है ऐसा विश्वास हो जाता है ।
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अर्हद्गीता
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