________________
एकस्तथैव सद्भावः स्वैर्विवतैः प्रवर्तते । हेयोपादेयताबुद्धिः-स्त्याज्या सांसारिकी ततः ॥ १२ ॥
अन्वय-तथैव एकः सद्भावः स्वैर्विवतैः प्रवर्तते। ततः सांसारिकी हेयोपादेयताबुद्धिः त्याज्याः॥१२॥
अर्थ-वैसे ही सूर्यवत् एक ही सद्भाव अपने नाना रूपों से अनेक वस्तुओं में प्रवर्तित होता है अतः वस्तुओं में हेयोपादेयात्मक सांसारिकी बुद्धि का परित्याग करना चाहिए ।
विवेचन-सर्व पदार्थोका स्रोत या मूल एक ही है, जब एक अनेक रूप में प्रगट होता है तब वस्तुओं में हम कैसे चुनाव करेंगे और एक का स्वीकार और अन्य का अस्वीकार करेंगे? अर्थात् सर्व पदार्थो के प्रति अनासक्त यानि समभावसे व्यवहार करेंगे।
स्वं परं लघु वा स्थूलं न शुभं नाशुभं हृदि । त्याज्यं ग्राह्यं न किञ्चित् स्या-द्विधेरैक्ये सुबुद्धिवत् ॥ १३॥
अन्वय-विधेः ऐक्ये सति हृदि सुबुद्धिवत् स्वं परं लघु वा स्थूलं न शुभं न अशुभं त्याज्यं वा ग्राह्यं किञ्चित् न स्यात् ।।१३।।
अर्थ-(क्योंकि) संसार में ब्रह्म की एकता होने के कारण सुबुद्धिवान् पुरुष के हृदय में अपना, पराया, छोटा, बड़ा, शुभ, अशुभ, त्याज्य तथा ग्राह्य कुछ भी नहीं रहता है। अर्थात् वह निरपेक्ष भाव से सर्व देखता है।
मान्यं यथाऽन्ये सामान्यं स्यादेकं व्यक्तिषु स्फुटम् । एको वा समवायोप्य-वयव्यवयवादिषु ॥ १४ ॥
अन्वय-व्यक्तिषु एक सामान्य स्फुटं यथा अवयवादिषु अवयवी समवायः अपि एकः वा स्यात् इति अन्ये मान्यं ॥१४॥ - अर्थ-प्रत्येक व्यक्ति में (भिन्न होते हुए भी) सामान्य रूप में एक ही चैतन्य तत्त्व का प्रकाश होता है। जैसे अवयवों में अवयवी अर्थात्
पश्चदशोऽध्यायः
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org