________________
(अवयवको धारण करने वाला) समवाय सम्बन्ध से रहता है । वह समवाय भी एक है ऐसा अन्य मतावलम्बी भी मानते हैं । अर्थात् हाथ और पैर अलग हैं फिर भी एक ही देह के जुड़े अंग होने से समवाय के संबंध से है और काया के संकेत से जाने जाते है 1
वह एक
जैना अपि द्रव्यमेकं प्रपन्ना जगतितले । धर्मोऽधर्मोऽस्तिकाय वा तथैक्यं ब्रह्मणे मतम् ॥
अन्वय - जगतितले जैना अपि एकं द्रव्यं प्रपनाः धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय वा तथा ब्रह्मणे ऐक्यं मतम् ॥ १५ ॥
१५ ॥
अर्थ- संसार में जैन भी एक ही द्रव्य की प्रधानता को स्वीकार करते हैं भले ही वह धर्मास्तिकाय हो अथवा अधर्मास्तिकाय । जिस भांति धर्मरूपी द्रव्य की एकता है वैसे ही ब्रह्म की एकता भी मानी गई है ।
विवेचन - गति सहायक तत्त्व होने से पदार्थ गतिमान रहते हैं और गति विरोधक तत्त्व से पदार्थ स्थिति को प्राप्त करते है । गति सहायक तत्त्व को धर्म और गति विरोधक तत्त्व को अधर्म की संज्ञा दी गई है। गति संबंध से धर्म और अधर्म दोनो में एकता है ।
लोकालोकाप्तमाकाशं परिणाम्येकमात्मना ।
तथा कथा न वितथा स्यादेकब्रह्मणः सतः ॥ १६ ॥
अन्वय-लोकालोकाप्तं आकाशं आत्मना एकं परिणामी तथा सतः एक ब्रह्मणः कथा वितथा न स्यात् ॥ १६ ॥
अर्थ - लोकालोक से युक्त आकाश परिणामी होते हुए भी एक ही है वैसे ही सद्रूप एक ब्रह्म की एकता की बात भी असंगत नहीं है । अर्थात् लोकाकाश परिणामी और अलोकाकाश अपरिणामी होते हु भी आकाश के स्वरूप में वह एक है । वैसे ही ब्रह्म की संज्ञा से चैतन्य स्वरूप ब्रह्म में एकता देखना तर्क-संगत है ।
सरूपी और अरूपी
१४६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
अर्हद्गीता
www.jainelibrary.org