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अर्थ-द्रव्य में अवस्थान्तर (पर्याय ) के उदय के कारण उत्पाद एव व्यय अवस्थाएं होती हैं क्योंकि ये अवस्थाएं उस पर्यायवान द्रव्य से भिन्न नहीं हैं क्योंकि अवस्थाएं (विकार) अपने आश्रय से मूल से अलग नहीं रह सकती हैं। जैसे आधार के बिना आधेय नहीं रह सकता है। जैसे मृतिका के बिना घट।
विवेचन-द्रव्य में ध्रुवत्व है उस के आधार से उत्पाद और व्ययरूप अनन्त परिणमन दृष्टिगत होते है अर्थात् पयार्यवान जगत दिखाई देता है।
न संबन्धं विना किञ्चित् प्रकाश्यं स्यात्प्रकाशकैः । न सर्वथा स संबंधिभेदे वाचकवाच्यवत् ॥ १० ॥
अन्वय-सम्बन्धं विना प्रकाशकैः किञ्चित् (वस्तु) प्रकाश्यं न स्यात् । सम्बन्धिभेदे वाचक बाच्यवत् न सर्वथा (भवति)॥१०॥
अर्थ-सम्बन्ध के बिना प्रकाशकों के द्वारा किसी भी वस्तु का प्रकाशन नहीं किया जा सकता। पर वाचक वाच्य (शब्दार्थ) की तरह खम्बन्ध भेद होने पर भी वे दोनों सब प्रकार से एक नहीं है। अर्थात् वे कथंचित् एक हैं सर्व प्रकार से नहीं।
विवेचन—सूर्य से रोशनी फैलती है। सूर्य और रोशनी जुड़े हुए भी है और अलग भी है। ये दोनो एक नहीं हैं।
सूर्यः प्रातर्यथा रत्न जलदर्शादि वस्तुषु । संक्रामस्तापवत्सर्वं कुरुते गुरुतेजसा ॥११॥
अन्वय-यथा प्रातः सूर्यः रत्नजलादर्शादि वस्तुषु संक्रामन् गुरुतेजसा सर्व (वस्तु) तापवत् कुरुते ॥ ११॥
अर्थ-जिस प्रकार प्रातःकालीन सूर्यः रत्न, जल, दर्पण आदि वस्तुओं में संक्रमित होकर अपने महत् तेज से सभी वस्तुओं को तापवान् कर देता है।
अर्हद्गीता
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