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________________ अर्थ-ज्ञेय का ज्ञान करने का परिणाम होने से ज्ञानी ज्ञेयाकार होता है। उसी न्याय से अपनी आत्मा भी भगवान् विष्णु अरिहन्त ब्रह्ममय होती है। लोकालोकस्वरूपज्ञः स लोकालोक उच्यते । अग्निज्ञानादिव ज्ञाता-ऽऽगमेप्यग्निरूदीरितः ॥७॥ अन्वय-लोकालोकस्वरूपज्ञः स लोकालोक उच्यते। आगमेऽपि अग्निज्ञानात् इव ज्ञाता अग्निः उदीरितः॥७॥ अर्थ-लोकालोक के स्वरूप को जानने वाला होने के कारण वह आत्मा स्वयं लोकालोक कहलाता है। शास्त्रों में भी अग्नि ज्ञान से सम्पन्न माणवक की लक्षणा से अग्नि ही कहा जाता है। यदैकत्वविमर्शः स्यात्तदैव केवलोदयः । ध्रौव्यभावनया द्रव्यं विकृतं न कृतं क्वचित् ॥ ८॥ अन्वय-यदा एकत्वविमर्शः स्यात् तदा एव केवलोदयः भवति ध्रौव्यभावनया द्रव्यं क्वचित् विकृतं न कृतम् ॥८॥ अर्थ-जब एकत्व की विचारणा होती है तभी केवल (विशुद्ध) ज्ञान का उदय होता है। धौव्य भावना से द्रव्य कभी भी विकृत नहीं होता है। अर्थात् द्रव्य मात्र ध्रौव्य भावना से अविकृत है। विवेचन-द्रव्य में अन्तर्गत ध्रुवत्व एवं एकत्व स्वरूप में प्रतिष्ठित है अविकृत है, आत्मा जब तद्रूप और तन्मय होती है अर्थात् ज्ञाता और ज्ञेयका भेद नष्ट होता है तब विशुद्ध ज्ञान शेष रहता है। उत्पादो वा विपत्तिश्च द्रव्येऽवस्थान्तरोदयात् । नावस्था तद्वतो भिन्ना सर्वथाश्रयवर्जिता ॥ ९ ॥ अन्वय-अवस्थान्तरोदयात् द्रव्ये उत्पादः वा विपत्तिश्च । अवस्था तद्वतः सर्वथा आश्रयवर्जिता भिन्ना न ॥९॥ पञ्चदशोऽध्यायः १४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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