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पञ्चदशोऽध्यायः
अनेकता में एकता [ गौतम स्वामी ने पूछा- हे इन्द्रपूज्य जगन्नाथ ! कृपा कर कहिये कि विद्वानों के लिये कौनसा तत्व जानने योग्य है जो कि शिव सम्पत्ति का साधन है ? श्री भगवान् ने कहा- सत्वरूप महत्तत्वं रूप जो अद्वैत ब्रह्म है वही उपासनीय है। वह ब्रह्म अनन्त-परिणामी, अनन्त शक्तिशाली, स्वयंभू सिद्ध-बुद्ध-शिव एवं अव्यय रूप है। वही केवलज्ञान स्वरूप है अतः केवलज्ञानी परमात्म स्वरूप होता है क्योंकि ज्ञान
और ज्ञेय में अभेद होता है इसलिये यह आत्मा स्वयं विष्णु अर्हत् एवं ब्रह्ममय है इस प्रकार विभिन्न न्यायों से आत्मा एवं परमात्मा की एकता प्रतिपादित की गई है। जैन दर्शन भी द्रव्य की एकता को मानता है। धर्म अधर्म एवं अस्तिकाय आदि एक ब्रह्म (जीव ) में ही समाविष्ट हैं। लोकाकाश अथवा अलोकाकाश उपाधि से भिन्न भले ही हो पर उनमें तात्त्विक एकता होती है। ऐसे ही संसार में भिन्नता दिखाई तो देती है पर वह एक ही ब्रह्म का विवर्त है। जो ज्ञान वैराग्य से युक्त जन ही उसे जान सकता है।
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अर्हद्गीता
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