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विषयों से नहीं जोड़ता है। अर्थात् योगी बारह प्रकारकी भावनाओं से मन का अनुसंधान आत्मा के साथ करता है बाह्य पदार्थों से नहीं।
मनसि श्रद्धया धर्मो न कृतोऽपि फलप्रदः । वलभद्र इव ब्रह्मलोकभाग् ध्यानवान्मृगः ॥ २१ ॥
अन्वय-मनसि श्रद्धया न कृतोऽपि धर्म फलप्रदः, मृगः ध्यानवान् बलभद्र इव ब्रह्मलोकभाग् ॥ २१ ॥
अर्थ-मन में धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं है किन्तु श्रद्धापूर्वक किया हुआ धर्म तो फलदायी ही होता है जिस प्रकार हिरण भी ध्यानवान बलभद्र मुनि की तरह पंचम ब्रह्मलोक का भागी बना !
॥ इति श्रीअर्हद्गीतायां ब्रह्मकाण्ड़े चतुर्दशोऽध्यायः॥
चतुर्दशोऽध्यायः
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