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गया है । विज्ञान के अलग दृष्टिकोण से देह की अंतस्त्रावी ग्रंथियों की प्रतिक्रिया से भावमन् और भावमन से यह ग्रंथियों पर होते हुए प्रभाव को मान्य करता है । यह देह और मन की प्रतिक्रियाओं में कर्मप्रकृति मूलकारणरुप हो वह संभव हो सकता है।
ज्ञात्वाभ्यासान्मनोभावान् बाधैराध्यात्मिकैस्तथा । अमीभिर्हेतुभिर्वश्यं मनोऽवश्यमनिच्छया ॥ ९ ॥
अन्वय - बाहौः तथा आध्यात्मिकैः : अभ्यासात् मनोभावान् ज्ञात्वा अमीभिः हेतुभिः मनः अनिच्छया अवश्यं वश्यम् ॥ ९ ॥
अर्थ - इन बाह्यान्तर लक्षणों के अभ्यास से मन एवं शरीर की स्थिति जानकर सहज ही में दुर्दमनीय मन वश में किया जा सकता है । प्रकृति के तंत्र तथा कर्म प्रकृति का मन तथा देह पर प्रभाव पड़ता है अतः तत् तत् उपायों से अनासक्तिपूर्वक मन को वश में करना चाहिए ।
परमात्मा ततः साक्षात् प्राणरूढमनः स्थितिः । मनः साध्यो मनोध्येयो मनोदृप्तस्समीक्ष्यते ॥ १० ॥
अन्वय-ततः प्राणरूढमनः स्थितिः मनः साध्यः मनोध्येयः मनोहप्तः परमात्मा साक्षात्समीक्ष्यते ॥ १० ॥
अर्थ - संयत प्राणवाले मन की स्थिति में जहाँ मन ही साधक एवं मन ही साध्य एवं मन ही ध्याता एवं मन ही ध्येय अर्थात् जब चित्तातीत स्थिति प्राप्त हो जाती है तब परमात्मा साक्षात् दिखाई देते हैं । यहाँ ध्यान की उत्तरोत्तर भावी मनःस्थितियों का निरूपण किया गया है ।
मनोवश्याय जायन्ते पाया बहुधा जने ।
ज्ञाने क्रियान्विते सर्वे ऽन्तर्भवन्ति भवदू (ब्रु) हः ।। ११ ।।
अन्वय-जने मनोवश्याय हि बहुधा भवद्रुहः उपाया जायन्ते । ज्ञाने क्रियान्विते सर्वे (ते ) अन्तर्भवन्ति ॥ ११ ॥
चतुर्दशोऽध्यायः
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