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अर्थ-सिद्धान्तवादियों के मतानुसार ज्ञानावरणीय कर्म वातस्वरूप है, आयुष्य की स्थिति पित्त स्वरूप एवं नामकर्म कफात्मक है।
रक्ताधिक्येन पित्तेन मोहप्रकृतयोऽखिलाः ।
दर्शनावरणं रक्त-कफसांकर्यसंभवम् ॥ ७ ॥ - अन्वय-रक्ताधिक्येन पित्तेन अखिलाः मोह प्रकृतयः रक्तकफसांकर्यसम्भवं दर्शनावरणम् ।। ७ ।।
अर्थ-रक्त की अधिकता से युक्त पित्त से मोहनीय कर्म की समग्र प्रकृतियाँ तथा रक्त और कफ की मिश्रितावस्था से दर्शनावरणीय कर्म का जन्म होता है।
तत्तद्विकारजं वेद्यं गोत्रं पित्तकफात्मकम् । अन्तरायः सनिपातादेषां विकृतिकारणम् ॥ ८॥
अन्वय-पित्तकफात्मकं तत् तत् विकारजं वेद्यं गोत्रं पित्तकफात्मकं एषां सन्निपातात् विकृतिकारणं अन्तरायः ॥८॥
अर्थ-सुख दुख के विकारों से उत्पन्न वेदनीय कर्म को जानना चाहिए, पित्त और कफ के सांकर्य से गोत्र कर्म तथा इन तीनों कफ पित्त वायु के मिलने से विकार का कारण अन्तराय कर्म होता है।
विवेचन-सत्त्व, रजस् और तमस् युक्त त्रिगुणात्मक प्रकृति से वात, पित्त और कफ उत्पन्न होते हैं। अष्ट कर्म प्रकृतियाँ और चित्तकी अवस्थाएँ और देह में वात, पित्त और कफ का निर्माण एक ही त्रिगुणात्मक प्रकृति से मानकर इनमें साम्य दिखाया गया है। एक अखंड प्रकृति स्वरूप में स्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्मतर अवस्थाओं में अन्योन्य कैसे नियमानुसार क्रियाएँ और प्रतिक्रियाएँ होती हैं और उन से चित्त में और देह में दोष उत्पन्न होते है। यह सारी प्रक्रिया समझ में आ जाय तो साधक सारी प्रकिया के स्वरूप अपने मनको वश करने के लिये कर सकता है वह दिखाने का यहां प्रयास है। जिस कारण मन निर्बल दिखता है वह समझे तो वही मनको सुमन करके वश किया जाता है। योगही साधना का रहस्य संक्षिप्त में दिया
अहंद्गीता
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