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________________ अर्थ- संसार में मन को वश करने के संसार द्वेषी अनेक उपाय किए जाते हैं पर ज्ञान क्रियान्वित वैराग्य में उन सब उपायों का विलयन (अन्तर्भाव ) हो जाता है । अज्ञानवादिनस्त्याज्या अक्रियावादिनोऽपि च । यतो ज्ञानक्रियायुक्तः पिण्डोऽयं दृश्यते न किम् ॥ १२ ॥ अन्वय- अज्ञानवादिनः अक्रियावादिनः अपि च त्याज्याः यतः ज्ञानक्रियायुक्तः अयं पिण्डः किं न दृश्यते ॥ १२ ॥ अर्थ - हमें कुछ ज्ञान प्राप्त करना ही नहीं है ऐसे एकान्त अज्ञान - वादी एवं हमें कुछ करना ही नहीं है ऐसे एकान्त अक्रियावादी भी त्याज्य होते हैं क्योंकि यह शरीर भी ज्ञान एवं क्रिया से ही संचालित है उसको बे क्यों नहीं देखते हैं ? संसरेत् सक्रियो जीवो निष्क्रियोऽकर्मवान् शिवः । क्रियेन्द्रियाण्यधः पिण्डे ज्ञानेन्द्रियाणि चोपरि ।। १३ ।। अन्वय- सक्रिय जीवः संसरेत्, निष्क्रियः अकर्मवान् शिवः १ पिण्डे क्रियेन्द्रियाणि अधः ज्ञानेन्द्रियाणि च ऊपरि ।। १३ ।। अर्थ - कर्मयुक्त जीव संसार में भटकता है कर्मरहित जीव शिवपद पाता है क्योंकि शरीर की कर्मेन्द्रियाँ उस के अधः भाग में हैं तथा ऊपर के भाग में ज्ञानेन्द्रियाँ हैं । ज्ञानस्य पुंसः स्थैर्याय क्रिया प्रियास्ति सात्विकी । शान्तो रसस्तया साध्यः प्रीणनीयोऽमुना मुनिः ॥ १४ ॥ अन्वय-ज्ञानस्य पुंसः स्थैर्याय सात्त्विकी क्रिया प्रिया अस्ति । तथा शान्तः रसः साध्यः अमुना मुनिः प्रीणनीय ॥ १४ ॥ अर्थ - ज्ञानरुपी पुरुष को चित्त की स्थिरता के क्रिया प्रिय होती हैं उसी से शान्त रस साध्य होता है १३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only लिए सात्विकी एवं इसी शान्त अर्हद्गीता www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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