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सायं विषेऽन्यदोषोक्तौ मघा स्वपितृतर्पणे । भोगादौ पूर्वफाल्गुन्या-मुत्तरात्वग्निदीपने ॥ १७ ॥
अन्वय-अन्यदोषोक्तो विषे सायं स्वपितृ-तर्पणे मघा पूर्वफाल्गुन्यां भोगादौ उत्तरा तु अग्निदीपने ॥१७॥
अर्थ-दूसरे के दोषान्वेषण तथा विष प्रयोग में अश्लेषा (सर्प देवता), अपने पितरों के तर्पण में मघा, भोगों की इच्छा में पूर्वाफाल्गुनी, और अग्निदीपन अथवा अमिहोत्रादि में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र होता है।
कलाभ्यासबलं हस्ते विचित्रेच्छा तु चित्रयां । स्वातौ वातप्रयत्नाद्यैश्वर्यकाम्यं विशाखया ॥ १८॥ .
अन्वय-हस्ते कलाभ्यासबलं चित्रया तु विचित्रेच्छा स्वातौ वातप्रयत्नादि ऐश्वर्य काम्यं विशाखया ॥१८॥
अर्थ-कलाभ्यास की शक्ति में हस्त नक्षत्र, विचित्र इच्छाओं में चित्रा, कल्पनादि में स्वाति नक्षत्र, प्रभुता की कामना में विशाखा नक्षत्र
होगा।
राजदेवकलामैत्रे ज्येष्ठायां ज्येष्ठसंगतिः। धनं वा भोजनं मूले महान् लाभः परद्वये ॥ १९ ॥
अन्वय-मैत्रे राजदेव कला ज्येष्ठायां ज्येष्ठ संगतिः धनं वा भोजनं मूले महान् लाभः पर द्वये ॥ १९ ॥
अर्थ-नक्षत्र में राजा व देवता की संगति में अनुराधा नक्षत्र, बड़ों की संगति में ज्येष्ठा, धन एवं भोजन की इच्छा में मूल नक्षत्र, महान् लाभ की स्थिति में पूर्वाषाढ़ा व उत्तराषाढ़ा नक्षत्र होगा।
श्रुतौ धा श्रुतिसेवा धनिष्ठायां मह्द्धनम् । जलक्रीड़ादि वारुण्यां शिवमिच्छेत्षरद्वये ॥ २० ॥
त्रयोदशोऽध्यायः
अ. गी.-९
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