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त्रयोदशोऽध्यायः
श्री गौतम उवाच ऐन्द्रं प्रधानतो ज्योतिः मनस्येव विजृम्भते। तिथिवारभमेतस्य प्रकाशय जगत्प्रभो ॥१॥
अन्वय-प्रधानत: ऐन्द्रं ज्योतिः मनसि एव विजृम्भते एतस्य तिथिवारं भं जगत्प्रभो प्रकाशय ॥१॥
अर्थ-श्री गौतमस्वामी ने पूछा हे भगवान् ! मुख्य रूप से चन्द्रकलानुसार मन की कलाएं विकसित होती है तो तदनुसार तिथिवार नक्षत्रादि का निरूपण कीजिए।
विवेचन-चन्द्रमा की कला को तिथि कहते हैं।
आकाश मंडल में चन्द्रमा, बुध, शुक्र, सूर्य, मंगल, ब्रहस्पति और शनि इन सात ग्रहों की स्थिति क्रमशः एक दूसरे के ऊपर मानी जाती है।
नक्षत्रों को आकाश का दूरिसूचक स्तम्भ कहा जाता है। मनुष्य शरीर (ब्रह्माण्ड के पिण्ड में) में भी नक्षत्रों की स्थिति ज्योतिषशास्त्र मानता है। दैनिक गोचर में जब कोई पापग्रह इन नक्षत्रों पर आता है तो वह जातक के सम्बन्धित अंगो में कष्ट उत्पन्न करता है।
श्री भगवानुवाच ऐक्ये तिथिः स्यात्प्रथमा द्वितीया द्वित्ववाञ्छया। त्रिधा प्रवृत्तौ तृतीया चतुर्थी त्यागयोगतः ॥२॥ पंचमी पंचकधिया षष्ठी षड्वस्तुभावनात् । सप्तमी सप्तधाभावात् अष्टमी अष्टधार्थतः ॥३॥
अन्वय-ऐक्ये प्रथमा तिथि: स्यात् द्वित्ववाञ्छ्या द्वितीया, त्रिधा प्रवृतौ तृतीया, त्यागयोगतः चतुर्थी ।।२। .. રરર
अहंद्गीता
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